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( १६१ ) .०३० प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव और योग
सो (पढमसम्मत्तं लभदिजीवो) पुण पंचिदिओ सन्नी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सम्वविसुद्धो ॥ ४ ॥ टीका-xxxमणयोगी वचियोगी काययोगी वा।xxx।
-षट • खं १ । ६ । ८। सू ४ । पु ६ । पृ० २०६-७ प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है। ऐसा जीव तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान हो सकता है।
.०३१ भाव योग-प्रकृति और प्रदेश बन्ध का हेतु
तत्तो कम्मपएसा, अणंतगुणिया तओ रसच्छेया । जोगा पयडिपएसं, ठिइअणुभागं कसायाओ॥
-कर्म० भा० ५ । गा ६६ । पृ• १२० टीका-xxx “जोगा पयडिपएस, ठिइअणुभागं कसायाउ" त्ति योगो वीर्य शत्तिरुत्साह; पराक्रम इति पर्यायाः; तस्मात् योगात् प्रकरणं प्रकतिःकर्मणां ज्ञानावरणादिस्वभाषः, प्रकृष्टाः पुद्गलास्तिकायदेशाः प्रदेशाः-कर्मवर्गणान्तः पातितः कर्मस्कन्धाः, प्रकृतयश्च प्रदेशाश्च प्रकृतिप्रदेशम् समाहारो द्वन्द्वः, तद् जीवः करोतीति शेषः, प्रकृति-प्रदेशबन्धयोर्योंगो हेतु-रित्यर्थः । एतदुक्तं भवति-यद्यपि षडशीतिकशास्त्रे मिथ्यात्वा-ऽविरति-कषाय-योगाः समान्येन कर्मणो बन्धहेतव उक्तास्तथाप्याद्यकारणत्रयाभावे-ऽप्युपशान्तमोहादिगुणस्थानकेषु केवलयोगसद्भावे वेदनीयलक्षणा प्रकृतिस्तत्प्रदेशाश्च बध्यन्ते, अयोग्यवस्थायां तु योगाभाबे न बध्यन्ते इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां ज्ञायते प्रकृतिप्रदेशबन्धयोर्योग एव प्रधानं कारणम् । xxx।
योग, वीर्य, शक्ति, उत्साह और पराक्रम-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। इस योग के द्वारा प्रकृति अर्थात कर्मों के ज्ञानावरणादि स्वभाव और प्रकृष्ट पुद्गलास्तिकाय के देश रूप प्रदेश अर्थात् कम वर्गणा के अन्तःपाती कर्मस्कन्ध इन दोनों का जीव जो बन्ध करता है उसका हेतु योग है। इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि षडशीतिक शास्त्र में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को सामान्य रूप से कर्म-बन्ध का हेतु कहा गया है तथापि उपरान्त मोह आदि गुणस्थानों में प्रथम तीन कारण अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति और कषाय के अभाव में भी केवल योग के सद्भाव में वेदनीय रूप प्रकृति और उसके प्रदेशों का बन्ध होता है तथा अयोगी अवस्था में योगाभाव रहने के कारण बन्ध नहीं होता है-इस प्रकार
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