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( ६३ ) काय, वचन और मन के द्वारा होनेवाले कर्म को तीन योग की संज्ञा दी जाती है - काययोग, वचनयोग और मनोयोग । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं - शुभ और अशुभ । हिंसा में प्रवृत्ति, चोरी करना तथा अब्रह्म - मैथुन का सेवन करना - कायिक अशुभ योग है । पापयुक्त वचन बोलना, मिथ्या-भाषण, कठोर मर्मवेधी वचन बोलना तथा चुगलखोरी आदि करना - वाचिक अशुभ योग है । दुर्ध्यान अथवा बुरा चिन्तन करना, किसी के मरने-मारने का चिन्तन, दूसरे की भलाई से जलन, किसी के गुण में दोष प्रकट करना इत्यादि - मानस अशुभ योग है। इसके विपरीत जो काय, वचन और मन के द्वारा क्रिया होती है वह शुभ योग है ।
ये तीनों प्रकार योग आस्रव अर्थात् कर्मवृद्धि में सहायक माने जाते हैं । शुभ योगपुण्य का आस्रव करता है और अशुभ योग पाप का आस्रव करता है ।
.०२ सिद्धसेन
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रूपेणोत्पादः
xxx योजनं योगः - पुद्गलसम्बन्धादात्मनो वीर्यविशेषः, युज्यते वा स इति योगः केन ? आत्मना, शक्तिविशेषः प्राप्यत इति यावत् कायावाङ्मनो- सिद्ध ० अ ५ । सू ४४ । पृ० ४४० XXX | किस्वरूपो योगः ? कतिप्रकारो वेत्याह- कायवाङ्मनः कर्म योग इति । कृतद्वन्द्वानां कायादौनामात्मनः करणानामभेदवृत्तीनां कर्मपदेन सह षष्ठीसमासः 1 कर्म व्यापारः क्रिया चेष्टेत्यनर्थान्तरम् । एतत् कर्म कायादिसम्बन्धि यथा सम्भवं योग उच्यते, वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितेन पर्यायेणात्मनः सम्बन्धो योगः । स च वीर्यप्राणोत्साहपराक्रमचेष्टाशक्तिसामर्थ्यादिशब्दवाच्यः अथवा युनस्येनं जीवो वीर्यान्तरायक्षयोपशनजनितं पर्यार्यमिति योगः । स च कायादिभेदात् न्निषिधः । साधकगमनादिभाषणचिन्तास्वात्मनः | X × × ।
- सिद्ध० अ ६ । सू १ । पृ० २
युक्त होना योग है, यह पुद्गल से सम्बन्धित रहने के कारण आत्मा का वीर्य विशेष योग है । अथवा, जो युक्त किया जाता है वह योग है । वह आत्मा के साथ युक्त होकर, काय, वचन और मन रूप से उत्पन्न होकर शक्ति विशेष को प्राप्त होता है ।
इस योग का क्या स्वरूप है या यह कितने प्रकार का है ? काय, वचन और मन कर्मयोग है । काय, वचन और मन - इन तीनों का मूल सूत्र में द्वन्द्व समास हुआ है, ये तीनों आत्मा के करण अर्थात् सहायक हैं, अतः इनकी वृत्तियों में अभेद है और इन तीनों का कर्म पद के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास हुआ है । कर्म, व्यापार, चेष्टा, क्रिया- ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं । इस कायादि से सम्बन्धित कर्म को योग कहा जाता है । को वीर्य, प्राण, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य आदि भी कहा जाता है । अथवा, इस कर्म को जीव जो वीर्यान्तराय के क्षय, उपशम और क्षयोपशम जनित
इस योग
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