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दूसरे समय में औदारिकमिश्र योम में आये हुए जीव के एक समय का अन्तर प्राप्त होता है ।
औदारिक काययोगी तथा औदारिकमिश्र काययोगी जीवों का उत्कृष्ट अन्तर सातिरेक तैंतीस सागरोपम रूप होता है। क्योंकि औदारिक काययोग से चार मनोयोगों तथा चार वचन योगों में परिणमित हो मरण कर तैंतीस सागरोपम प्रमाण आयुस्थिति वाले देवों में उत्पन्न होकर, वहाँ अपनी स्थितिप्रमाण रहकर पुनः दो विग्रह कर मनुष्यों में उत्पन्न
औदारि मिश्र काययोग सहित दीर्घकाल रहकर पुनः औदारिक काययोग में आये हुए जीब के नौ अन्तर्मुहूर्तों व दो समय अधिक तैंतीस सागरोपम रूप अन्तर प्राप्त होता है ।
इसी प्रकार औदारिकमिश्र काययोग का अन्तर कहना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि औदारिकमिश्र काययोग का अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि से अधिक तैंतीस सागरोपम रूप होता है, क्योंकि, नारकी जीवों में से निकलकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो, औदारिकमिश्र काययोग का प्रारम्भ कर कम से कम काल पर्याप्तियों को पूर्ण कर, औदारिक काययोग के द्वारा औदारिकमिश्र काययोग का अन्तर कर कुछ कम पूर्व कोटिकाल व्यतीत कर तैंतीस सागरोपम की आयुवाले देवों में उत्पन्न हो पुनः विग्रह करके औदारिकमिश्र काययोग में जाने वाले जीव के उपर्युक्त काल रूप अन्तर प्राप्त होता है । .०५ वैक्रिय काययोगी का एक जीव की अपेक्षा अंतर darकायजोगीणमंतरं केवखिरं कालादो होदि ?
- षट् खं २ । ३ । सू ६८ | ७ | पृ० २०८
टीका - सुगमं ।
जहणेण एगसमभो ।
——षट् खं २ । ३ । सू ६६ | पृ ७ | पृ २०६
टीका - वेडव्वियकायजोगादो मणजोगं वविजोगं वा गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए वाघादव सेण वेडब्धियकायजोगं गदस्स तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेजपोग्गलपरियहौं ।
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- षट्० खं० २ । ३ । सू ७० पु० ७ पृ० २०६
टीका - अंतरस्स पाहण्णियादो एगवयणं णवुंसयन्तं च जुज्जदे । सेसं
सुगमं ।
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