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चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी है। बिना योग के कर्मबंध होता नहीं, अतः उसे अबंधक गुणस्थान माना है ।
अन्तराल गति में स्थूल शरीर नहीं होता है। अन्तराल गति दो प्रकार की होती है
१-ऋजुगति और २-वक्रगति ।
आगम वाली के अनुसार तीर्थंकरों के प्रथम चार कल्याण ( गर्भ-जन्म-दीक्षाकेवलज्ञान ) एक ही नक्षत्र में होते हैं-परिनिर्वाण का नक्षत्र अन्य भी हो सकता है तथा वह भी हो सकता है। इस अवसर्पिणी कालके चौवीस तीर्थ करों के गर्भ आदि के कल्याण के समय इस प्रकार नक्षत्र रहे थे।
१-ऋषभदेव के प्रथम चार कल्याण उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण अभिजिव नक्षत्र में हुआ। ( जंबू० )
२-अजितनाथ के प्रथम चार कल्याण रोहिणी नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण मृगशिरा नक्षत्र में हुआ। (त्रिषष्टि)
३-चन्द्रप्रभु के प्रथम चार कल्याण अनुराधा नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण ज्येष्ठा नक्षत्र में हुआ। (उत्तर पुराण)
४-श्रेयांसनाथ के प्रथम चार कल्याण श्रवण नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण धनिष्ठा नक्षत्र में हुआ। (त्रिषष्टि-उत्तर पुराण)
५-मल्लिनाथ के प्रथम चार कल्याण अश्विनी नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण भरणी नक्षत्र में हुआ। (शाता १८ व उत्तरपुराण)
६-वर्धमान के प्रथम चार कल्याण उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में व स्वाती नक्षत्र में परिनिर्वाण हुआ । ( आया० २।१५ ठाणांग ५)
शेष तीर्थ करों के गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवलशान व परिनिर्वाण का नक्षत्र एक ही था। १-संभवनाथ के पांचों कल्याण-मृगशिरा नक्षत्र में हुए । ( उत्तरपुराण) २-अभिनन्दन के पाँचो कल्याण पुनर्वसु नक्षत्र में हुए । ( उत्तरपुराण ) ३-सुमतिनाथ के पाँचों कल्याण मघा नक्षत्र में हुए । (उत्तरपुराण ) ४-पदमप्रभु के पाँच कल्याण चित्रा नक्षत्र में हुए । ( ठाणांग ५) ५-सुपाश्वनाथ के पाँच कल्याण विशाखा नक्षत्र में हुए । ( उत्तरपुराण ) ६---सुविधिनाथ के पाँचों कल्याण मला नक्षत्र में हुए । (ठणांग ५) ७-शीतलनाथ के पाँचों कल्याण पूर्वाषाढा नक्षत्र में हुए ( , ) ८-वासुपूज्य के पाँचों कल्याण विशाखा नक्षत्र में हुए । ( उत्तर पुराण)
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