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इन छत्तीस प्रकारों का पाँच इन्द्रियों से सेवन न करना । इस प्रकार (३६४५=१८०) भेद हो गये।
विषय योग उत्पन्न होने वाले दस संस्कारों ( शरीर संस्कारादि ) से दूर रहना । इस प्रकार (१८०४१०=१००० ) भेद हो गए।
दस संभोग प्रक्रिया और परिणाम से बचना । इस प्रकार (१८००x१०=१८०००) भेद हो गये । दस संभोग प्रक्रिया और परिणाम ये है
१-कामचिंता, २--अंगावलोकनादि ।
महावत में देव, मनुष्य, तिर्यच संबंधी मैथून सेवन का तीन करण व तीन योग से प्रत्याख्यान होता है। अणुब्रत में व्यक्ति स्थूल रूप में स्वदार संतोष अर्थात परदार त्याग करता है। चतुर्थ अणुव्रत स्थूल मैथुन से विरमण रूप है । मैं जीवन-पर्यत देवता-देवांगना संबंधी मैंथून का द्विविध-त्रिविध (दो करण व तीन योग) से प्रत्याख्यान करता हूँ। परपुरुष-स्त्रीपुरुष और तिर्य'च-तियची संबंधी मैथून का एक करण, एक योग-शरीर से सेवन नहीं करूँगा।
__ केवल ब्रह्मचर्य का पालन भाव दो भाव-क्षायोपशमिक व पारिणामिक । आत्मा-योग व देशचारित्र । संयम युक्त ब्रह्मचर्य का पालन करना भाव चार-उदय भाव को छोड़कर । आत्मा एकचारित्र ।
चूँकि कर्म बंध का मुख्य हेतु आस्रव है। ये पाँच है-मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय व योग। कर्म का मन, वचन व काय योग पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जेन मतानुसार शुभ-अशुभ घटनाएँ कर्मजन्य है । ग्रह उनकी अवगति में सहायक बनता है और कर्म फल के विपाकोदय भूमिका निर्मित करते हैं। पुण्य बंध में नाम कर्म का उदय अनिवार्य है। और नामकर्म के उदय में पुण्य बंध की भजना है। चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी है। बिना योग के कर्मबंध नहीं होता है अतः उसे अबंधक गुणस्थान कहा है।
शुभ प्रवृत्ति के समय अशुभ व अशुभ प्रवृत्ति के समय शुभ कर्म का बंध नहीं होता। एक समय में एक का ही बंध होता है। यह योग से संबंधित है। कषाय, प्रमाद, अवत आदि से समय-समय पर अशुभ कर्म बंधता है। इस दृष्टि से शुभ-अशुभ दोनों कर्म साथ में बंध सकते हैं।
कर्म बंध के दो प्रकार है-साम्परायिक बंध और ईपिथिक बंध। कषाय और योग की चंचलता से साम्परायिक कर्म का बंध होता है। दसवें गुणस्थान तक कषाय की विद्यमानता से इस कम का बंध होता है । इयांपथ का अर्थ है-योग। जहाँ मात्र योग की चंचलता है वहाँ यह ईपिथिक बंध होता है। यह ई-पथिक बंध केवल वीतरागी के होता है।
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