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________________ ( 64 ) ऐसे योगरहित केवलज्ञानी अयोग केवली होते हैं। योग मार्गणा - मार्गणाका अर्थ है खोजना है। योग को खोजना - योग मार्गणा । ग्यारह मार्गणा में योग मार्गणा चतुर्थ है । मन, वचन व कायके निमित्तसे होने वाली क्रिया से युक्त आत्मा के जो शक्ति विशेष उत्पन्न होती है जो कर्मों के ग्रहण में कारण है उसे योग कहते हैं। योग के प्रकारान्तर से पन्द्रह भेद है जिसमें काययोग के सात भेद है । मन और वचन योग के चार-चार भेद है । उदार अर्थात् महत् शरीर को औदारिक कहते हैं। उसके निमित्त से होने वाले योग at औदारिक काययोग कहते हैं । औदारिक जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक मिश्र कहलाता है । उसके द्वारा होनेवाला योग - औदारिकमिश्र काययोग है । अनेक गुणों और ऋद्धियों से युक्त शरीर को वेक्रियक शरीर कहते हैं । उसके द्वारा होने वाले योग को वैक्रियिक काययोग कहते हैं । वैक्रियिक शरीर जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक वे क्रियिक मिश्र काययोग है । जिसके द्वारा मुनि संदेह होने पर सूक्ष्म अर्थों को ग्रहण करता है उसे आहारक शरीर कहते हैं । उससे जो योग होता है उसे आहारक काययोग कहते हैं । जब तक आहारक शरीर पूर्ण नहीं होता है तब तक उसे आहारकमिश्र कहते हैं और उससे होने वाले योग को आहारकमिश्र योग कहते हैं । कर्म ही कार्मण शरीर है। उसके निमित्त से जो योग होता है वह कार्मण काय योग है । तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिक काय योग व औदारिक मिश्रकाय योग होते है । देव और नारकियों के तथा वैक्रियलब्धि संपन्न कुछ मनुष्यों तियंचों के भी वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाय योग होते हैं। ऋद्धि प्राप्त मुनियों के आहारक काय - योग व आहारक मिश्रकाय योग होते हैं । विग्रहगति में स्थित चारों गतियों के जीवों तथा प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घात प्राप्त केवलि जिनके कार्मण काययोग होता है । आहारक काय योग व आहारक मिश्रकाय योग एक प्रमत्त संयत गुणस्थान में ही होता है । अस्तु इन्द्रिय अर्थात् मतिज्ञान से रहित सयोगी केवली में मुख्यरूप से मनोयोग का अभाव होने पर भी उपचार से मनोयोग है। उपचार के होने से निमित्त और प्रयोजन दो कारण होते हैं । निमित्त इस प्रकार है - जैसे हमारे जैसे मन से युक्त छद्मस्थ जीवों के तत्पूर्वक अर्थात् मनपूर्वक ही वचन अर्थात् वर्णपद वाक्यात्मक वचन व्यापार देखा जाता है अतः केवली के मनोपूर्वक वचन कहा है। मुख्य मनोयोग का केवली के अभाव होने से मनोयोग की कल्पना का उपचार कहा है । केबली के अंगोपांग नाम कर्म का उदय होने से हृदय के अंतर्मन में खिले हुए आठ दल वाले कमल के आकार द्रव्य मन होता है । उसके परिणमन के कारण मनोवगंणा के स्कन्धों के आने से द्रव्य मन का परिणमन होता हैं । अतः प्राप्ति रूप प्रयोजन से तथा पूर्वोक्त निमित्त से और सुखय मनोयोग का अभाव होने से उपचार से मनोयोग कहा है । अथवा आत्म-प्रदेशों के कर्म और नो कर्म को आकृष्ट करने की शक्ति रूप भाव मनोयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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