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है। उससे उत्पन्न हुआ मनोवर्गणा का द्रव्य मन रूप से परिणमन रूप द्रव्य मनोयोग है। पूर्वोक्त उपचार का प्रयोजन तो सब जीवों पर दया, तत्त्वार्थ का उपदेश, शुद्धध्यान आदि का केवली में होता है ।' – कि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनो मान्यताओं में सयोगी केवली में सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग स्वीकृत किया है। अतः सयोगी केवली मैं मन से मतिज्ञान का न होना स्वीकृत है परन्तु उपचारगत भाव मनोयोग मानना पड़ता है। अशुभ योग प्रमाद के दिगम्बर साहित्य में पन्द्रह भेद किये है-~यथा, विकथा चार, कषाय चार, इन्द्रियाँ पाँच, निद्रा एक, स्नेह एक ।
अस्तु अनुभूत अर्थ को ग्रहण करना तथा उसकी योग्यता मनः प्राण है। यह प्राण सयोगी केवली के भी होता है । गोम्मटसार में चक्रवर्ती के भी वैक्रिय काययोग माना है। वासुदेव के भी वैक्रियकाय होता है। अतः चक्रवर्ती तथा वासुदेव में योग बारह होते हैचार मन के, चार वचन के, औदारिक काययोग, वैक्रिय काययोग, औदारिक मिश्रकाय योग तथा वैक्रिय मिश्रकाय योग ।
___ अस्तु प्रमत्तविरत में वैक्रिय काययोग क्रिया और आहारक काययोग क्रिया-ये दोनों एक साथ नहीं होती है क्योंकि उसके आहारक ऋद्धि और वैक्रिय ऋद्धि दोनों के एक साथ होने में निरोध है। तथा योग भी एक काल में अर्थात् अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त में नियम से एक ही होता है। दो या तीन योग एक जीव में एक साथ नहीं होते हैं। ऐसा होने पर एक योग के काल में अन्य योग का कार्य रूप गमनादि क्रिया के होने में कोई निरोध नहीं है क्योंकि जो योग चला गया उसके संस्कार से एक योग के काल में अन्य योग की क्रिया होती है ।
- जैसे कुम्हार दंड के प्रयोग से चाक को घुमाता है । पीछे दंड का प्रयोग नहीं करने पर भी संस्कार के बल से चाक घूमता रहता है। या धनुष से छूटने पर वाण जब तक उस में पूर्व संस्कार रहता है तब तक जाता है। पीछे संस्कार नष्ट होने पर गिर जाता है । इस प्रकार संस्कार के वश एक साथ अनेक योगों की क्रिया के होने का प्रसंग उपस्थित होने पर प्रमत्तविरत में वैक्रिय और आहारक शरीर की क्रियाओं के एक साथ होने का निषेध गोम्मटसार में किया है। अर्थात ये दोनों योग रूप क्रिया संस्कारवश भी एक साथ नहीं होती।
तीन योग में सबसे कम कार्मण काययोगी वाले, उससे असंख्यात गुण अधिक औदारिकमिश्र योग वाले, उससे संख्यात गुण अधिक औदारिक काययोग वाले हैं। उपयुक्त तीनों योग वाले जीव प्रत्येक अनंतानंत जानना चाहिए। औदारिकमिश्र काययोग का काल अन्तमहत मात्र है। उससे औदारिक काययोग का काल संख्यात गुण अधिक है।
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१ गोजी० गा. २२७ से २२६ । टीका २ गोजी. गा० २३३ टीका
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