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द्वीन्द्रिय - ४ योग ( औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग व व्यवहार
भाषा
त्रीन्द्रिय में- -४ योग
चतुरिन्द्रिय में - ४ योग
पंचेन्द्रिय में – १५ योग
५ अचरम-समय
६ प्रथम- प्रथम
७ प्रथम- अप्रथम
८ प्रथम-चरम
६ प्रथम- अचरम
१० चरम-चरम
११ चरम- अचरम
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अनेन्द्री में - ७ योग (सत्यमन, व्यवहारमन, सत्य वचन, व्यवहार वचन, औदारिक, औदारिकfor तथा कार्मण काययोग
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कृतयुग्म - कृतयुग्म आदि १६ महायुग्म है । प्रत्येक महायुग्म के ग्यारह ग्यारह उद्देशक है। ग्यारह उद्देशक के नाम इस प्रकार है ।
१ अधिक कृतकृतयुग्म - कृतयुग्म
२ प्रथम-समय
३ अप्रथम-समय
४ चरम-समय
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इनमें प्रथम, तृतीय व पाँचवें उद्देशक के विवेचन में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंशी पंचेन्द्रिय में वचन योग व काययोग होते हैं तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय में तीनों योग होते है । अवशेष आठ उद्देशक के विवेचन में सब स्थान पर केवल काययोग कहना चाहिए ।
जरा ( वृद्धावस्था ) शारीरिक दुःखरूप है और शोक ( खेद हीनता ) मानसिक दुःखरूप है । इसलिए जिन जीवों के मनोयोग नहीं है, उन्हें केवल जरा होती है और मनोयोग वाले जीवों को जरा और शोक दोनों होते हैं ।
पृथ्वी कायिक से चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के मनोयोग नहीं है अतः जरा है परन्तु शोक नहीं है बाकी जीवों के जरा और शोक दोनों है ।
१ औदारिक काययोग — औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंचों में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद जो हलन चलन की क्रिया होती है - वह ओदारिक काययोग ।
२ औदारिक मिश्र काययोग - यह चार स्थान पर मिलता है ।
(क) मनुष्य एवं तिर्यंचगति में उत्पन्न होने के समय में जीव आहार ले लेता है,
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