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टीका-xxx किन्त्वनेकयोगधराः। तत्र योगः क्षीराश्रवादिलब्धिकलापस्तं धारयन्तीत्यनेक योगधराः x x x ।
क्षीराशावादि लब्धि-समुदाय को धारण करने वाला-अनेक योगधर । .०१९ अद्धजोगं ( अद्ध योग) -षट • खं ४, २, ४।सू २६ाटीका।पु १०।पृ० १०१
योगकाल का अर्ध भाग।
xx x अद्धजोगमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिइण तत्थेगखंडेण अवघहियजोगहाणं णिरूभिइण वढिपरूषणा कायव्वा ।
वृद्धि प्ररूपण करने के लिए अर्धयोग को उत्कृष्ट संख्यात से खण्डित कर उनमें से एक खण्ड अधिक योगस्थान विवक्षित करना आवश्यक है । .०२० अन्नोन्नकरण जोएसु ( अन्योन्य करणयोग) -पउम० उ श्लो ६३
दसण-नाण-चरित्ते, सुद्धा अन्नोन्नकरणजोएसु ।
देहेवि निरवयक्खा, सिद्धिं पावेन्ति धुयकम्मा ॥९३॥ जो ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में तथा परस्पर करण और योग में शुद्ध होते हैं और जो देह में भी अनासक्त होते हैं वे अपने कर्मों का नाश करके मुक्ति प्राप्त करते हैं । .०२१ अपज्जत्तजोगे ( अपर्याप्त योग )
-षट • खं १।१।पु रापृ. ६५४ मन, वचन, काय के व्यापार की अपूर्णता।
कवाडगद-केवलिस्स अपजत्तजोगे वट्टमास्स पुचिल्ल-सरीरेण सह सम्बन्धाभावादो।
कपाट-समुद्घातगत सयोगिकेवली के पूर्व शरीर के साथ सम्बन्ध न रहने के कारण उनके योग को अपर्याप्त योग कहा जाता है । .०२२ अप्पभायजोगो (अप्रमादयोग)
-सम० प्रकी ६६ प्रमाद अर्थात् अनवधानता से रहित योग ।
मूल-अंतगडदसासु xxx तह अप्पमायजोगो सज्झायजमाणेण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई पत्ताण य संजमुत्तमं xxx।
टीका-अप्रमादयोगः स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयो'योरपि लक्षणानि-स्वरूपाणि, तत्र स्वाध्यायस्य लक्षणं 'सज्झाएणपसत्थं माण' मित्यादि, ध्यानलक्षणं यथा-"अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेग वत्थुमी” त्यादि व्याख्यायन्त इति सर्वत्र योगः x x x ।
स्वाध्याय तथा अन्तर्महुर्त पर्यन्त चित्त को एक वस्तु में स्थिर रखना-ध्यान रूप योग को अप्रमाद योग कहा गया है ।
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