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बिरोषो दृश्यत इति चेद्भवतु नाम दृष्टस्वात् । न चानेन विरोध इति सर्वाभिविरोधो वक्तुं पार्यतेऽव्यवस्थापत्तेरिति ।
आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग ऋद्धिप्राप्त संयतों में होते हैं ।
अब यहाँ पर विचार किया जाता है कि संयतों को आहारक ऋद्धि की प्राप्ति होने से ऋद्धि प्राप्त समझना चाहिए अथवा उनको पहले वैक्रिय ऋद्धि प्राप्त है इसलिए ऋद्धि प्राप्त समझना चाहिए ? प्रथम पक्ष तो ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि इतरेतराश्रय दोष आ जाता है ; यथा- जब तक उनमें आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होगी तब तक उनको ऋद्धि प्राप्त नहीं कहा जा सकता तथा जब तक वे ऋद्धि प्राप्त नहीं होंगे तब तक उनमें आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती है । दूसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है, क्योंकि उनमें उस समय दूसरी ऋद्धियों का अभाव रहता है। यदि सद्भाव मान भी लिया जाय तो आहारक ऋद्धिवालों में मन:पर्यय ज्ञान की उत्पत्ति भी माननी चाहिए; क्योंकि अन्य ऋद्धियों के समान इसके होने में कोई विशेषता नहीं है । किन्तु आहारक शरीरधारी में मन:पर्ययज्ञान माना नहीं जाता है, क्योंकि आगम से विरोध होता है ।
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वह तो आता नहीं है, क्योंकि तथा स्व से स्व की उत्पत्ति रूप संयतानाम्' यह विशेषण घटित प्राप्ति के हेतुभूत संयम को ही अतएव ऋद्धि के कारणभूत संयम
प्रथम पक्ष में जो इतरेतराश्रय दोष दर्शाया गया है आहारक ऋद्धि स्व की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है संयमातिशय की अपेक्षा से होती है । अतएव 'ऋद्धि प्राप्त होता है । यहाँ पर ऋद्धि की अप्राप्तावस्था में भी ऋद्धि कारण में कार्य का उपचार करके 'ऋद्धि' कहा गया है। को प्राप्त संयतों को ऋद्धि प्राप्त कहा गया है - ऐसे संयतों के आहारक ऋद्धि होती है यह बात सिद्ध हो जाती है । अथवा, संयमविशेष से उत्पन्न आहारक ऋद्धि के उत्पादन योग्य शक्ति को यहाँ आहारक ऋद्धि के उत्पादन योग्य शक्ति को यहाँ आहारक ऋद्धि कहा गया है, इसलिए इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है। इसी प्रकार दूसरे विकल्प में दिखाया गया दोष भी नहीं आता है, क्योंकि एक ऋद्धि के साथ दूसरी ऋद्धि नहीं आती है, यह स्वीकार नहीं किया गया है। यह नियम भी नहीं है कि एक आत्मा में युगपत् अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि गणधरों में एक साथ सातों ही ऋद्धियों का सद्भाय देखा जाता है ।
आहारक ऋद्धि के साथ ममःपर्यय ज्ञान का विरोध होता है, इसलिए अन्य ऋद्धियों के साथ भी विरोध रहेगा - ऐसा नहीं कहा जा सकता है, अन्यथा अव्यवस्था उपस्थित हो जायगी ।
६ वैक्रिय - वै क्रियमिश्र काययोग किसके होता है
arooकायजोगो वेड व्विय निस्सकायजोगो देवणेरइयाणं ।
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- षट् • खं १ । १ । सू ५८ । १ पृ० २६६
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