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जोगिणं खेतभंगो। वेउन्षियकायजोगिसु तिण्णिपदेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगल्स असंखेजदिभागो अह-तेरह वोहसभागा देसूणा । वेउग्वियमिस्सकायजोगीणं खेत्तभंगो। xxx ।
-षट • खण्ड ४ । १ । सू ६६ । पु६ । पृ २८७६०
तीनों पद संचित काययोगी जीव सर्व लोक को स्पृष्ट करके है। आहारक द्विग जीव लोक के असंख्यात भाग को स्पृष्ट करते हैं। पाँच मनोयोगी तथा पाँच वचनयोगी जीव लोक का असंख्यात भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग लोक अथवा सर्वलोक स्पृष्ट है। इसका कारण मुक्त मारणन्तिक के भी मनोयोग-वचनयोग की सम्भावना है । औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी तथा कार्मण काययोगी जीव सव लोक से स्पृष्ट हैं। वे क्रिमकाययोग लोक का असंख्यात वा भाग अथवा कुछ कम आठ व तेरह बटे चौदह भाग स्पृष्ट है। वैक्रियमिश्र काययोगी लोक के असंख्यातवा भाग स्पृष्ट करके है। .१० अयोगी जीष अनाहारक होते हैं।
केवलि समुहय विग्गह-गइ-गेय । अरुह अजोइ सिद्ध परमप्पय॥ ते ण लेंति आहारु पियारिय। सेस जीव जाणहि आहारिय ॥
-वीरच संधि १२ । कड ४
जो जीव केवलि समुद्घात कर रहे हैं ( आठ समायों में तीसरा, चौथा, पाँचवाँ समय अनाहारक), विग्रहगति में तथा जो अरहंत अयोगी व सिद्ध परमात्मा हो चके है । वे आहार नहीं लेते, अतः वे अनाहारक है। .११ सिद्ध-योग पलेश्या रहित होते हैं।
बाल णड वुड्ढ, णउ मुक्ख सुधिषड्ढ। xxx । णिग्वेय णिज्जोय xxx । णिग्वेस णिल्लेस xxx।
-वीरजि० संधि १२ । कड ८ वे सिद्ध जीव न बालक होते है, न वृद्ध, न मुर्ख और न चतुर । न मन, वचन, कायरुप योगों का भेट है, न द्वेष है, न लेश्या है। .२२ विशेष जीवों में .१ कलई आदि पनस्पति काय में
कलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निप्फाय-कुलत्थ-आलिसदंग-सडिण-पलि
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