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( ३०७ ) गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। से केण?णं भंते ! एवं बुधर'सिय समजोगी, सिय विसमजोगी १ गोयमा! आहारयाओ वा से अणाहारए, अणाहारयाओ चा से आहारए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जइ होणे असंखेजहभागहोणे चा, संखेजइभागहीणे घा, असंखेजगुणहीणे वा, संखेजगुणहीणे बा। अह अब्भहिए असंखेजइभागमभहिए था, संखेजइभागमम्महिए वा, संखेजगुणमभहिए वा, असंखेजगुणमभहिए वा, से तेण?णं जाव सिय 'विसमजोगी। एवं जाब वेमाणियाणं। -भग० श २५ । उ १ । प्र ४
प्रथम समय उत्पन्न दो नै रयिक कदाचित् समयोगी और कदाचित् विसमयोगी होते हैं।
आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक नारक से आहारक नारक कदाचित हीनयोगी, कदाचित तुल्ययोगी और कदाचित अधिकयोगी होता है। यदि वह होनयोगी होता है, तो असंख्यातवें भाग हीन, संख्यात भाग हीन, संख्यात गुणहीन या असंख्यात गुणहीन होता है।
यदि अधिक योगी होता है तो असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है।
इस कारण कहा गया है कि कदाचित समयोगी, कदाचिव विषमयोगी होता है।
इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। .५६ सयोगी जीव और अन्तरकाल .२ मणजोगिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो, एवं वर
जोगिस्स वि, कायजोगिस्स जहणेण एक्कं समयं उक्कोसेण अंतोमुहुर, अयोगिस्स णस्थि अंतरं। -जीवा० प्रति ६ । सू २५७ । पृ• WE
अन्तरचिन्तायां मनोयोगिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत ऊर्ध्व भूयो विशिष्टमनोयोग्यपुद्गलग्रहणसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, तावन्तं कालं स्थित्वा भूयो मनोयोगिवागमनसम्भवात्, एवं वाग्योगिनोऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं भावनीयं, औदारिककाययोगिनो जघन्यत एक समयं, औदारिकलक्षणं कायमपेक्ष्यैतत्सूत्र, यतो द्विसामयिक्यामपान्तरालगतावेकः समयोऽन्तरं, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, इदं हि सूत्रं परिपूर्णौदारिकशरीरपर्याप्ति परिसमाप्त्यपेक्षं, तत्र विग्रहसमयादारभ्य यावदौदारिकशरीरपर्याप्ति परिसमाप्तिस्तावदन्तमहूर्त, तत उक्तमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त ।
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