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( २६२ ) .६ सयोगी और संवर की स्थिति
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णस्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स ।
__-पंच० गा १४३ । पृ० २०७ टीका-यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाङ्मनः कायकर्माणि शुभपरिणामरूपं पुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः स्वकारणभाषात्प्रसिद्ध यति। तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंघरो द्रव्यपुण्यपापसंपरस्य हेतुः प्रधानोऽवधारणीयः।
जो योगी ( साधक ) सब प्रकार के कर्मों से निवृत्त हो जाता है, ऐसे योगी के जब वाक, मन और काय के व्यापार द्वारा शुभ परिणाम रूप पुण्य तथा अशुभ परिणाम रूप पाप का बन्ध नहीं होता है तब उसके शुभाशुभ भाव के द्वारा किये हुए द्रव्यकम का संवर होता है अर्थात कर्मों का आगमन रुक जाता है। यह स्व-कारणभाव रूप से प्रसिद्धि पाता है। यहाँ पर शुभशुभ परिणाम निरोध रूप भावपुण्य-पाप संवर ( मानसिक भाव) द्रव्यपाप-पुण्य संवर का प्रधान हेतु है-ऐसा मानना चाहिए।
नोट-पूर्ण रूप के आश्रव का निरोध चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में होता है। पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण में जितना समय लगता है उतनी इस गुणस्थान की स्थिति है। .६ बर्धमान महावीर और परिनिर्वाण के पूर्व योग निरोध
कम-तिजोय-सुणिदोडु अणिहउ । किरिया-छिण्णइ झाणि परिहिउ ॥
-वीरजि० संधि शकड १ भगवान ने परिनिर्वाण के पूर्व-मन, वचन, काय इन तीनों योगों का सम्यग् प्रकार निरोध करके छिन्न क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यान धारण किया । अतः योग के विणाभी ध्यान हो सकता है ।
नोट-अयोगी अवस्था की स्थिति पाँच ह्रस्वाक्षर मान होती है। अ-इ----। इनके उच्चारण में जितना समय लगता है उतनी स्थिति होती है। .७ प्रथमानुगम की अपेक्षा कृति
०१ पंचमनोयोगी ०२ पंचषचनयोगी
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