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( २८७ ) .१६.१ योग का स्वामित्व-त्रिसंयोगी
मणजोगो पचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाप सजोगिकेवलि त्ति ।
--षट • खं० १ । १ । सू ६५ । पृ १ । पृ० ३०८ चतुर्णा मनसां सामान्यं मनः तजनितवीर्येण परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोगः । चतुर्णा वचसां सामान्य पचः, तजनितीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगो पाग्योगः । सप्तानां कायानां सामान्य कायः, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगः काययोगः। एते त्रयोऽपि योगाः क्षयोपशमापेक्षया व्यात्मकैकरूपमापन्नाः संशिमिथ्यादृष्टेरारभ्य आसयोगकेवलिन इति क्रमेण सम्भवापेक्षयावा स्वामित्वमुक्तम् । काययोग एकेन्द्रियेवप्यस्तीति चेन्न, पाङ्मनोभ्यामषिनाभाविनः काययोगस्य विवक्षितत्वात् । तथा घचसोऽप्यभिधातव्यम्।
___ मनोयोग, वचनयोग और काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं।
सत्यादि चार प्रकार के मन में जो अन्वय रूप से रहता है उसे सामान्य मन कहते है, उस मन से उत्पन्न हुए परिस्पन्दनरूप वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसको मनोयोग कहते है। चार प्रकार के वचनों में जो अन्वयरूप से रहता है उसको सामान्य वचन कहते है, उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश-परिस्पन्दन रूप वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसको वचनयोग कहते हैं। सात प्रकार के कार्यों में जो अन्वयरूप से रहता है उसको सामान्यकाय कहते हैं, उस काय से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश-परिस्पन्दन रूप वीर्य के द्वारा जो योग होता है, उसको काययोग कहते हैं। ये योग तीन होते हुए भी क्षयोपशम की अपेक्षा एकात्मकता को प्राप्त कर संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते है।
__ काययोग एकेन्द्रिय जीवों के भी होता है, फिर यहाँ संशी पंचेन्द्रिय से कथन करने का कारण यह है कि वचनयोग और मनोयोग से आविनाभाव रखनेवाले काययोग की विवक्षा है। इसी प्रकार वचनयोग का भी कथन करना चाहिए, क्योंकि वचनयोग दीन्द्रिय जीवों से होता है।
जीप समूहों में योग .१७.१ द्विसंयोगी पचिजोगो कायजोगो बीइंदियप्पटुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ।
-षट् • खं० १ । १ । सू ६६ । पु१ । पृ० ३०६
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