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( २५१ ) नेतरयोरप्रमावस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां 'विपर्ययानध्यवसायाजानकारणमनसः सत्त्याविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायवाद।
___असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग संशी मिथ्यादष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छदमस्थ गुणस्थान तक पाये जाते है ।
त्ति।
क्षपक उपशमक जीवों में सत्यमनोयोग और अनुभयमनोयोग का सद्भाव तो हो सकता है, परन्तु असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव कैसे रहेगा; क्योंकि इन दोनों योगों में रहनेवाला अप्रमाद, असत्य और उभयमन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है । क्षपक और उपशमक प्रमादरहित होते है, अतः उनमें असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग नहीं पाये जा सकते है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों में विपर्यय और अनध्यवसाय रूप अज्ञान के कारणभूत मन का सद्भाव स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक और उपशमक जीव को प्रमत्त नहीं मानना चाहिए, क्योंकि प्रमाद मोह का पर्यायवाचक है । '३ पचनयोग किसके होता है ? वचिजोगो असञ्चमोसपचिजोगोबीइंदिय-प्पहुडि जाप सजोगि केलि
-षट • खं १।१। सू५१ । पु १ । पृ २८७ टीका-असत्यमोषमनोनिबन्धनषचनमसत्यमोषपचनमिति प्रागुक्तम्, तद् दोन्द्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकान्तोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यन्त इति मनोरहितकेवलिनां पचनाभाषसंजननात् । विकलेन्द्रियार्णा मनसा घिना न ज्ञानसमुत्पत्तिः। छानेन विना न पचनप्रवृत्तिरिति
चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकान्ताभाषात्। भावे वा नाशेषेन्द्रियेभ्यो हानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात। नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतषिषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात्। न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इन्द्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात। समनस्केषु शानस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न, केवलज्ञानेन व्यभिचारात। समनस्कानां यत्क्षायोपशमिक ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्ववचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्त तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मामसस्य छानस्य मन इति संज्ञां विधायोक्तत्वात । कथं विकलेन्द्रियषचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यक्षसायहेतुत्वात। ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभि प्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षितत्वात्।।
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