Book Title: Yoga kosha Part 1
Author(s): Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 361
________________ ( २७० ) उनमें ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होते है और श्रोता के आवरणकर्म का क्षयोपशम अतिशयरहित होता है। तीर्थकरों के वचन अनक्षरात्मक होने के कारण ध्वनिरूप हैं, अतः वे एकरूप है, फिर भी उनमें सत्य और अनुभय-इन दो रूपों के होने का कारण यह है कि केवली के वचन में 'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभप रूप वचन का सद्भाव रहता है, अतः केवली के वचन की अनक्षरात्मकता असिद्ध है । केवली की ध्वनि को साक्षर स्वीकार लेने पर उनके वचन एक भाषारूप हो जायेंगे, अशेष भाषारूप नहीं रहेंगे-ऐसा भी नहीं कहना, चाहिए, क्योंकि क्रमविशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियों के समुच्चय रूप और सब श्रोताओं में प्रवृत्त होनेवाली केवली की ध्वनि को सम्पूर्ण भाषारूप मान लेने में कोई विरोध नहीं रहता है। यद्यपि केवली के वचन अनेक भाषारूप होते है, फिर भी वे ( वचन ) ध्वनिरूप है, क्योंकि केवली के वचन ‘इसी भाषारूप होते हैं'-ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है। केवली में अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, अतः उनमें मन का अभाव रहता है-ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें द्रव्यमन का सद्भाव रहता है। ___यह भी नहीं कहा जा सकता है कि द्रव्यमन का सद्भाव तो रहता है, परन्तु उसके कार्य नहीं होते हैं, क्योंकि द्रव्यमन के कार्य रूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहे; किन्तु द्रव्यमन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो रहता ही है, क्योंकि द्रव्यमन की वर्गणाओं को लाने के लिए होनेवाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं रहता है। अतः सिद्ध होता है कि मन के निमित्त से आत्मा के परिस्पन्दन रूप प्रयत्न को मनोयोग कहते है। केवली में द्रव्यमन के उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी उसके कार्य न होने का कारण यह है कि केवली में मानसिक ज्ञान के सहकारीकारण रूप क्षयोपशम का अभाव रहता है। यद्यपि केवली में वस्तुतः क्षायोपशमिक मन नहीं रहता है तथापि सत्य और अनुभय रूप वचनों की उत्पत्ति उपचार से किया जाता है, अतएव उन दोनों वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है। '२ असत्यमनोयोग-उभयमनोयोग किसके होता है। मोसमणजोगो सचमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइडि-प्पहुडि जाप खीणकसाय-वीयराग छदुमत्था त्ति। -षट खं १ । १ सू ५१ । पू १ । पृ० २८५ टीका-भवतु नाम आपकोपशमकानां सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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