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कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के विषय में कृष्ण लेश्या के दूसरे शतक के समान कहना चाहिए। काययोग होता है। सोलह महायुग्म में काययोग होता है। ६९.३ नीललेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय में योग एवं णीललेल्सभवसिद्धियएगिदियपएहि वि सयं ।
-भग० श ३५ । श ७ नीललेशी भवसिद्धिक कृतयग्मकृतयग्मादि महायग्म एकेन्द्रिय में काययोग होता है । "EE४ कापोतलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय में योग
एवं काउलेस्स भषसिद्धियएगिदियहि वि तहेव एकारस उद्देसगसंजुत्त सयं।
-भग० श ३५ । उ८ कापोतलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयग्म महायग्म एकेन्द्रिय में काययोग होता है । १०० अभवसिद्धिक महायुग्म में योग
१ अभवसिद्धिक कृतयरमकृतयग्म एकेन्द्रिय में योग "२ कृष्णलेशी '३ नीललेशी “४ कपोतलेशी
जहा, मषसिद्धिएहिं चत्तारि सया भणियाई एवं अभयसिद्धिएहि पिचत्तारि सयाणिलेस्सासंजुत्ताणि भाणियवाणि |
-भग० श ३५ । श ६ से १२ जिस प्रकार भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के चार शतक कहे उसी प्रकार अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय में भी लेश्या सहित चार शतक कहने चाहिए। महायग्म लेश्या सहित एक काययोग होता है। १०१ महायुग्म द्वीन्द्रिय में योग "१ कृतयुग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव और योग
(कडजुम्मकडजुम्मबेइ दिया ) णो मणयोगी, वययोगी चा काययोगी पाxxx एवं सोलससु वि जुम्मेसु ।
-भग० श ३६ । श १ उ १ कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिय मनोयोगी नहीं होते है। वचनयोगी व काययोगी होते है। सोलह महायग्म में मनोयोग नहीं होता है । वचनयोग-काययोग होता है।
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