________________
( २२० ) .७८ सलेशी में
लेस्साणुवादेण ओघालायो मूलोघ-भंगो। णवरि-अजोगिगुणहाणेण विणा तेरह गुणहाणाणि अस्थि xxx -षट् खं १।१ । पु २ । पृ. ७५०
सलेशी में पन्द्रह योग होते हैं। अयोगी केवली गुणस्थान के बिना तेरह गुणस्थान में सलेशी होते हैं। लेश्यानुवाद में-औधिक आलाप मूलौधिक की तरह योग कहना चाहिए। .७१ कृष्णलेशी में
किण्हलेस्सालावे भण्णमाणे xxx तेरह जोग। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसिं चेव अपजत्ताणं xxx तिण्णि जोग xxx। किण्हलेस्सा-मिच्छाइट्ठीणं x x x तेरह जोग xxx। तेसि वेष पजत्ताणं x x x दस जोग xxxतेसिं चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग xxx। किण्हलेस्सा-सासणसम्माइट्ठीणं xxx तेरह नोग yxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग xxx। तेसि चेष अपजत्ताणं xxx तिणि जोग xxx| किण्हलेस्सा-सम्मामिच्छाइट्ठीणं xxx दस जोग xxx। किण्हलेस्सा-असंजदसम्माइट्ठीणं xxx वेउन्धियमिस्सेण पिणा बारह जोग xxx। तेसिं चेव पजत्ताणxxx दस जोग। तेसिं चेष अपजत्ताणं xxx वे जोग xxx। -षट् • खं १ । १। पु २ । पृ. ७५०-५८
कृष्णलेशी में तेरह योग होते है । इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं।
कृष्णलेशी मिथ्यादृष्टि में तेरह योग होते है। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं।
कृष्णलेशी सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेरह योग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में तीन योग होते हैं।
कृष्णलेशी सम्मामिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दस योग होते है ।
कृष्णलेशी असंयतसम्यग्दृष्टि में वैक्रियमिश्र काययोग के बिना बारह योग होते है। इनके पर्याप्त में दस योग, अपर्याप्त में दो योग ( औदारिकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग) होते है। .८० नीललेशी में णीललेस्साए भण्णमाणे ओघादेसालाषा किण्हलेस्सा-भंगा।
-षट् खं १ । १ । पु २ । पृ. ७५६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org