________________
( १७२ )
जोग x x x | सासणसम्माइट्ठीणं ( णेरइयाणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग XxX | सम्मामिच्छा इट्ठीणं ( णेरइयाणं ) जोग xxx । असंजदसम्माइट्टीणं भण्णमाणे XXX!
भण्णमाणे अस्थि x x x णच अत्थि x x x एगारह जोग - षट० खं १, १ । टीका | पु २ | पृ० ४५६-६२ --ठाणा० स्था ३ उ १ । सू १३ । पृ० ५४१ रयणप्पभाए कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? - जीवा० प्रति ३ । उ २ । सू ८८ । पृ० ११५
(ख) देखो पाठ ०२ (ग) इमीसे णं भंते!
तिणिवि x x x
प्रथम पृथ्वी के औधिक नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रिय - मिश्र, और कार्मणकाय - ये ग्यारह योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त ग्यारह योग । सासादन सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय - नौ योग । सम्यग्मिथ्यादृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के और वैक्रियकाय नौ योग । असंयत सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथ्वी के नारकियों में चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मणका - ग्यारह योग होते हैं ।
रत्नप्रभा - प्रथम पृथ्वी के नारकियों में मन, वचन और काय - तीन योग होते हैं।
०३०१ प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में
तेसि ( पढमाए पुढचीए णेरइयाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि xxx दो जोग x x x । तेसिं ( पढम- - पुढवि-मिच्छाइट्ठीणं) चेव अपज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x दो जोग x x x । तेसि ( पढम- पुढवि - असंजदसम्माइडीणं) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x वे जोग x x x |
- षट् ० खं १, १ । टीका । पृ २ पृ० ४५६-६३
प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में वैक्रियमिश्र और कार्मणकाय दो योग होते हैं । गुणस्थान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि प्रथम पृथ्वी के अपर्याप्त नारकियों में उपर्युक्त दो योग । असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उपर्युक्त दो योग होते हैं । सासादन सम्यग्fष्ट और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अपर्याप्त अवस्था नहीं होती है ।
०३०२ प्रथम पृथ्वी के पर्याप्त नारकियों में
तेलि ( पढमाए पुढवीए णेरइयाणं ) वेब पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थिxxx णव जोग x x x | तेसिं ( पढम- पुढवि-मिच्छाइट्ठीणं ) वेब पज्जत्ताणं भण्णमाणे अस्थि x x x णव जोग x x x । तेसिं ( पढम- पुढषि-असंजदसम्माइट्ठीणं ) वेब पज्जत्ताणं भण्णमाणे अत्यि x x x णव जोग x x x
-- षट् ० खं १, १ । टीका । पु २ । पृ० ४५७-७३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org