________________
( २१४ ) xxx। तेसिं चेव पजत्ताणं xxx दस जोग XXX । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं xxx वे जोग xxx| णउसयवेद-संजदासंजदाणं xxx णव जोग। xxx | णउसयवेद-पमत्तसंजदप्पहुडि जाव पढम-अणियहि त्ति ताव इत्यिवेदभंगो।
---षट० खं १, १ । पु २ । पृ० ६८८-६८ __ नपुंसक वेद में तेरहयोग होते हैं ? इनके पर्याप्त में दस योग होते हैं । ( आहारक, आहारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग कार्मणकाययोग को बाद देकर=१० योग) अपर्याप्त नपुंसक वेद में तीन योग ( औदारिकमिश्र काययोग, वे क्रियमिश्र काययोग-कार्मणकाययोग) होते हैं। नपुंसक मिथ्यादृष्टि में तेरहयोग होते हैं। इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में तीन योग होते हैं। नपुंसक सास्वादान सम्यगदृष्टि गुणस्थान में बारह योग ( आहारक-आहारमिश्र वैक्रियमिश्र काययोग बाद) होते हैं। चूँकि नपुंसक सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के जीव नरक गति में उत्पन्न नहीं होते हैं अतः इनमें वे क्रियमिश्र काययोग नहीं होता है । नपुंसक सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं-औदारिकमिश्र काययोग तथा कामण काययोग। नपुंसक सम्यगमिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं। इस गुणस्थान में अपर्याप्त अवस्था नहीं होती है । नपुंसक असंयत सम्यग्दृष्टि में बारह योग होते हैं । ( औदारिक मिश्र काययोग नहीं होता है । )
इनके पर्याप्त में दस योग तथा अपर्याप्त में दो योग होते हैं। नपुंसक वेद संयतासंयत में नौ योग होते होते हैं ।
नपुंसक वेद प्रमत्तसंयत यावत प्रथम अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में स्त्री वेद की तरह नौ योग होते हैं। .५९ अपगतवेदी में
__अवगदवेदाणं भण्णमाणे xxx एगारह जोग अजोगो घि अस्थि XXX । विदिय-अणियट्टिप्पाहुडि जाव सिद्धा त्ति ताच मूलोघ-भंगो।
-षट ० खं १, १ । पु २ । पृ ६६८-६६ अपगत वेदी-अर्थात वेदरहित जीव में ग्यारह योग होते हैं-(नौ योग में औदारिकमिश्र काययोग कार्मणकाययोग-११ योग होते हैं) तथा अयोगी भी होते हैं। द्वितीय भाग के अनिवृत्ति बादर गुणस्थान यावत सिद्धों में मूल औधिक की तरह नौ योग होते हैं-द्वितीय भाग अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में नौ योग, दसवें, ग्यारवें, बारहवें गुणस्थान में नौ योग होते हैं। तेरहवें गुणस्थान में सातयोग (५+२=७ (औदारिकमिश्र काययोग-कार्मणकाययोग ) चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्धों में योग नहीं है । .६० सकषायी में कसायाणुवादेण ओघालावा मूलोघ-भंगा।
-षट् ० खं १, १ । पृ २ । पृ० ६६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org