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.०१३४ ठाणगमणगुणजोगजुंजणजुगं तरनिवातिए ( स्थानगमनगुणयोगयोजनयुगान्तरनिपातिका ) - पण्डा० अ ६|द्वा १|सू १७ पृ० ६८६
बैठना और चलना रूप योग में युगप्रमाण भूभाग पर दृष्टिपात करना । मूल - पढमं - ठाणगमणगुणजोगजुंजण-जुगंतर निवातिए दिठ्ठीए X x× × परिवज्ञएण सम्मं ।
टीका - स्थानं - निषीदनं गमनं-चलनं तयोर्गुणयोगं प्रवचनोपघातवर्जन लक्षणो गुणस्तस्य योगः - सम्बन्धस्तं योजयति या सा, युगं धूसरं युगान्तरे - युगप्रमाणभूभागे निपतति या सा युगान्तरनिपातिका ततः
कर्मधारयः ।
बैठना या गमन करना रूप योग का योजन करते हुए प्रवचनादिजन्य उपघात से बचने के लिए युगान्तर अर्थात् युगप्रमाण भूभाग पर दृष्टिपात कर लेना - स्थानगमनयोगयोजन - युगान्तर निपातिका ( दृष्टि ) |
*०१३५ णाण - दंसणाणुभाग-जोगादिविसयं ( ज्ञान - दर्शनानुभाग - योगादिविषय) - षट्० खं० १, ८ सू २५|पृ० २४२
ज्ञान,
दर्शन और योगादि को विषय बनानेवाला ।
जाण दंसणाणुभाग- जोगादिविसयं णोभागमभाषप्पाबहुअं ।
गोआगमभाव - अल्पबहुत्व, जिसका विषय होता है आत्मा के ज्ञान-दर्शन और
योगादि ।
*०१३६ णाण - विणय-त
-तव-खरित-जोगे ( ज्ञानविनयतपचारित्रजोगे )
जहा सुई ससुत्ता, पडियाण विणस्स | तहा जीवे ससुते, संसारेण विणस्स ॥ णाण-विणय-तब-चरित्त-जोगे संपाउणइ, ससमव-परसमय-विसारए य असंघाणिज्जे भव ॥ ५६ ॥
जिस प्रकार डोरे सहित सुई कूड़े-कचरे में गिर जाने पर भी गुम नहीं होती - वैसे ही भुत ज्ञानी जीव संसार में नहीं भटकता - किन्तु ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है ।
- ०१३७ गतिसंजोगं ( ज्ञातिसंयोग )
- उत्त० २६ / सू ५.६
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समारभते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमाणा । ते णातिसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेउ पगरंति संगं ॥ टीका - x x x शातिसंयोगं स्वजन सम्बन्धं X x × |
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- सू० श्रु २ अ ६ मा २१
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