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पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते तं जहा-(सचमोसवइप्पओगे) एवं पप्पओगेपि चहाxxx।
टीका-'एवं वइप्पओगेवि चउहा' इति, यथा मनः प्रयोगश्चतुर्द्धा तथा बाक्प्रयोगऽपि चतुर्द्धा, तद्यथा- xxx सत्यमृषाचाक् प्रयोगः xxx, एताश्च सत्यवागादयः सत्यमनःप्रभृतिवद्भावनीया इति।
एक दृष्टान्त के अनुसार यथा-किसी वन को धव, खदिर, पालस आदि वृक्षों से मिश्रित अशोक वृक्षों की बहुलता के कारण 'अशोकवन' ही है-इस कथन में अशोकवृक्षो के सद्भाव के कारण सत्यता तथा धवखदिरादि के भी सदभाव के कारण असत्यता रहती है-इस प्रकार के वचन का प्रयोग करना-सत्यमृषावचनप्रयोग। ०१९५ सञ्चवइप्पओगे ( सत्यवचनप्रयोग) -पण्ण० प १६ । सू.१०६८
सत्य स्वरूप वचन का व्यवहार । पण्णरसविहे पओगे पन्नत्ते, तं जहा-xxx(सश्चवइप्पओगे)xxxi
टीका---'एवं वइप्पओगोवि चउहा' इति, यद्यथा मनःप्रयोगश्चतुर्धा तथा पाक्प्रयोगोऽपि चतुर्द्धा, तथा-सत्यवाक्प्रयोगोxxx।
मुक्ति प्राप्ति की अभिलाषा से जीव को सव-असत् रूप तथा देह मात्र में व्याप्त स्वीकार कर वचन का प्रयोग करना-सत्यवचनप्रयोग। ..१९६ सञ्चामोसमणप्पओगे (सत्यमृषामनःप्रयोग) -पण्ण० १६ । सू० १.६८
आंशिक सत्य और आंशिक मिथ्या रूप मन का व्यापार ।
पण्णरसविहे पओगे पपणते तं जहा-xxx असञ्चामोसमणप्पओगे ३xxx|
टीका-'सश्चमोसमणप्पओग' इति सत्यमृषा-सत्यासत्ये यथा धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुवशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरं, तत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यता अन्येषामपि धवखदिरादीनां सद्भाबादसत्यताxxx।
एक दृष्टान्त के अनुसार, यथा धव, खदिर, पलास आदि वृक्षों के रहते हुए भी अशोक वृक्ष की बहुलता के कारण किसी वन को अशोकवन कहना ; इस कथन में जिस प्रकार अशोक वृक्षों की बहुलता के कारण आंशिक सत्य तथा अन्य वृक्षों की भी सत्ता के कारण आंशिक असत्य का आभास होता है। इस प्रकार के मन के व्यापार को 'सत्यमृषामनोयोग' कहते हैं । ०१९७ संजमजोगविसन्ना (संयमयोगविषण्णा)
ठाण० स्था २ । उ ४ । सू ४११ । टीका
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