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( १०६ ) .०१३ सत्यमृषा (पचनयोग ) के भेद
दसविधे सञ्चा-मोसे पण्णत्ते, तं जहा-उप्पण्णमीसए, विगतमीसए, उप्पणविगतमीसए, जीवमीसए, अजीवमीसए, जीवाजीवमीसए, अणंतमीसए, परितमीसए अद्धामीसए, अद्धद्धामीसए ।
-ठाण स्था १० । सू६१ .०१४ काययोग के भेद
कायजोगो सत्तविहो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउब्धियकायजोगो वेउब्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कामणकायजोगो चेदि।
-पट • खं १ । १ । सू ५६ । पु १ । पृ० २८६ '०८ योग पर विवेचन
.०१ गिण्हइ य काइएणं निसिरइ तह वाइएण जोएणं । एगंतरं च गिण्हइ निसिरह एगंतरं चेव ॥
-विशेभा• गा ३५५ टीका-कायेन निवृत्तः कायिकः योजनं योगो व्यापारः, कर्म, क्रिया, इत्यनान्तरम् । तत्र सर्व एव वक्ता कायिकेन योगेन शब्दद्रव्याणि गृह्णाति । चशब्दस्त्वेवकारार्थः, तस्य च व्यवहितसम्बन्धात् कायिकेनैवेति द्रष्टव्यम् । निसृजति, उत्सृजति, मुञ्चति, इति पर्यायाः। तथेति ग्रहणानन्तरमित्यर्थः । उक्तिर्वाक् तथा निर्वृत्तो वाचिकस्तेन योगेन निसृजति। किमनुसमयमेष गृह्णाति, निसृजति वा; उताऽन्यथा ? इत्याशंक्याह-एकान्तरमेव गृह णाति, निसृजत्येकान्तरं चैव। अयमत्र भावार्थ:-प्रतिसमयगृहाणाति मुञ्चति च। कथम् ? यथा ग्रामादन्यो प्रामान्तरं पुरुषाद् वाऽन्यः पुरुषो निरन्तरोऽपि सन् पुरुषान्तरम्, एवमेकै कस्मात् समयादेकैक एवैकान्तरोऽनन्तरसमय एवेत्यर्थः !
काय अर्थात शरीर से निवृत्त-निष्पन्न कायिक कहलाता है। जोड़ना योग है। योग, व्यापार, कर्म तथा क्रिया-सभी एकार्थवाची है। सभी वक्ता कायिक योग से शब्दद्रव्यों (शब्दपुद्गल ) को ग्रहण करते हैं। यहाँ पर गाथा में च शब्द एवकारार्थक है, अतः उसके व्यवधान युक्त सम्बन्ध रहने के कारण ऐसा अर्थ करना चाहिए–'कायिक योग से ही शब्दद्रव्य ग्रहण किये जाते हैं। निसर्ग, उत्सर्ग तथा मोचन--पर्यायवाची हैं। अब ग्रहण के बाद उसका निसर्ग--त्याग होगा। वाच् से निवृत्त होनेवाला वाचिक कहलाता है । वाचिक योग के द्वारा शब्दद्रव्यों का मोचन अर्थात् त्याग होता है। क्या प्रति समय शब्द
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