________________
( १५५ )
गोयमा ! जीवदव्वाणं भजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वभागच्छंति, णो जीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ।
सेकेण्णं भंते! एवं वुश्चइ-जाबहव्वमागच्छंति ।
गोयमा ! जीवदव्वा णं अजीवदव्वे परियाइयति अजीवदव्वे परियाइइत्ता xxx मणजोगं वइजोग कायजोगं x x x व णिव्वतयंति से तेणट्टणं जाव हव्वमागच्छंति ।
- भग श २५ । उ २ सू ४
अजीव द्रव्य, जीव द्रव्यों के भोग में आते हैं परन्तु जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते। जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करके × × × मनोयोग, वचनयोग, काय योग x x x में परिणमाते हैं ।
विवेचन -- जीव द्रव्य सचेतन है और अजीव द्रव्य अचेतन है अतः जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करके उनको अपने मनोयोग वचनयोग काययोग रूप में परिणत करते हैं । यह उनका परिभोग है । जीव द्रव्य परिभोक्ता हैं ।
.०१४ सयोगी और द्रव्य-प्रहण
जीवे णं भंते! जाई दव्वाइ सोइ दियत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाइ hoes, अठियाई गेण्हइ १ x x x मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं । ( कार्मणपाठ - जीवे णं भंते! जाइ दव्बाइ तेयगसरीरत्ताए गिण्हइपुच्छा । गोयमा ! ठियाइ' गेण्हर, णो अठियाइ गेण्हर, सेसंजहा ओरालियसरीरस्स | कम्मगसरीरे एवं चेव । - प्र १२ ) नवरं नियमं छद्दिसिं, एवं बइजोगत्ताए वि, कायजोगता विजहा ओरालियसरीरस्स । ( औदारिक पाठ जीवे णं भंते! जाइ दव्वाइ' ओराजियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई कि ठियाइ' गेव्हर, अठियाई गेण्डर ? गोयमा ! ठियाइ पि गेव्हर, अठियाइ पि गेव्हइ । ताह भंते! कि दव्षओ गेoes, खेत्तओ गेण्हर, कालओ गेण्हइ, भावओ गेण्हइ ? गोयमा ! दव्वओ वि hoes, खेत्तओ वि गेण्हर, कालओ वि गेण्हर, भावओ वि गेण्हइ । ताइ दव्बओ अणतपएसिया' दव्वाइ, खेत्तओ असंखेजपएसो गाढाई - एवं जहा पण्णचणाए पढमे आहारुद्देसए, जाव णिव्वाघापणं छद्दिसिं, वाघायें पडुच्च सिय तिदिसिं, यि चउदिसिं, सिय पंचदिसि । ९-१० )
-भग० श २५ । २ । प्र १५
जीव ( कार्मण शरीर की तरह ) जिन पुद्गल द्रव्यों को मनोयोग रूप में ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं ।
वह उन द्रव्यों को द्रव्य से भी, क्षेत्र, काल और भाव से भी ग्रहण करता है । वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org