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अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा जाना जाता है कि प्रकृति और प्रदेश के बन्ध का प्रधान कारण योग है। .०३२ भाव योग और आस्रव
(क) मिथ्यात्वमविरतिः प्रमादः कषायो योगश्च-जैनसिदी० प्र ४ । सू १८ आस्रव के पाँच भेद हैं, उसका पाँचवाँ आस्रव योग आस्रव है-- १-मिथ्यात्व आत्रव २-अविरति आस्रव
-प्रमाद आत्रव ४-कषाय आस्रव ५-योग आस्रव (ख) शुभयोग एवं शुभकर्मास्रवः
-जैनसिदी० प्र ४ । सू २८ शुभयोग ही शुभकर्म का आस्रव है। और योग आस्रव का एक भेद शुभ व एक भेद अशुभ योग आस्रव है। .०३३ भाव योग और निर्जरा यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा
-जैन सिदी० प्र ४ । सू २६ जहाँ शुभ योग होता है ; वहाँ निर्जरा अवश्य होती है । .०३३ भाव योग की परिभाषा कायवाङ्मनोव्यापारो योगः
-जैनसिदी० प्र ४ । सू २६ शरीर, वचन एवं मन के व्यापार को योग कहते हैं। .०३४ भाव योग के भेद (योगः) शुभोऽशुभश्च
-जैनसिदी० प्र४ । सू २७ योग दो प्रकार का होता है-शुभ व अशुभ । .०३५. योग और संवर
पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्त, विरई, अप्पमाया, अकसाया, अजोगा।
-सम० सम ५ । सू ५
- ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ११० पाँच संवर में एक अयोग संवर है जो संपूर्ण योग के निरोध होने पर-चौदहवें गुणस्थान में होता है । संवर पाँच है-यथा-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोगसंवर।
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