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( १११ ) तह वाइएणजोएणं' ( गा ३५५) इति ? अत्रोत्तरमाह-'तणु' इत्यादि ननु द्वितीयविकल्प एवाऽत्राऽङ्गीक्रियते, केवलमवशिष्टः काययोगो वाग्योगतया नाऽस्माभिरिष्यते, किन्तु तनुयोगविशेषावेव कायव्यापारविशेषावेव मनोवाग्योगाविष्येते यद् यस्मात् ; ततोऽयमदोषः। न हि कायिको योगः कस्यांचिदप्यवस्थायां शरीरिणां जन्तूनां निवर्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेष तन्निवृत्तेरिति अतो वागनिसर्गादिकाले सोऽस्त्येवेति भावः
पर पक्ष का कथन है -'कायिक योग से ग्रहण होता है'- यह जो कहा है उसे हम स्वीकार करते हैं, क्योंकि वक्ता कायिक योग से वागद्रव्यों को ग्रहण करता है, यह युक्तियुक्त भी है, क्योंकि काय-व्यापार के बिना वागद्रव्यों का ग्रहण नहीं हो सकता है। फिर यह जो कहा-'वाचिक योग से उसका निस्सरण होता है'-इसे हम समझ नहीं पाते हैं, क्यों कि वाचिक योग से निसर्ग कैसे होता है ? ग्रहण की जाती हुई वाणी में जीव के व्यापार रूप योग का अभाव है-यह घटित नहीं होता है। राह संक्षेप से कहकर अब विस्तार से पूछते हैं-यह वाग्योग क्या है ! जिससे भाषापुद्गल छोड़े जाते हैं वह ? वाणी ही छोड़े जाते हुए भाषापुद्गल के समूह रूप में वाग्योग है, अथवा निसर्ग का कारणभूत कायव्यापार वाग्योग है ! ये दो बिकल्प हैं ।
प्रथम विकल्प का निराकरण करते हुए कहते हैं कि यह जो शरीर से युक्त जीव का व्यापार कहा गया है वह वाक् नहीं है, क्योंकि वह रस-गन्धादि की तरह पुदगलपरिणामी है। जीव के व्यापार रूप जो योग है वह पुद्गलपरिणामी भी नहीं है, जिस प्रकार जीवाधिष्ठित कायव्यापार पुद्गलपरिणामी नहीं है। और क्या, वाग से कुछ भिन्न वस्तु निकलता नहीं है, अपि तु वही निकलती है। कर्म ही करण नहीं होता है। अतः वाग ही वाग्योग है यह प्रथम विकल्प नहीं घटता है ।
___ अब दूसरे विकल्प पर विचार किया जाता है-क्या कायशरीर का व्यापार वागयोग है-ऐसा ही कहेंगे ? इसके उत्तर में कहा गया है-द्वितीय विकल्प को ही यहाँ पर स्वीकार किया गया है। केवल अवशिष्ट काययोग को वागयोग के रूप में हम स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु काय के व्यापार विशेष के रूप में मनोयोग और वाग्योग को स्वीकार करते हैं, अतः यह दोषरहित है। कायिक योग किसी भी अवस्था में शरीरधारियों के निवृत्त नहीं होता है, अपि तु अशरीरी सिद्धों के ही कायिक योग की निवृत्ति होती है, अतः वाग के निसर्गकाल में भी कायिक योग रहता ही है। .०३ किं पुण तणुसंरंभेण जेण मंचइ स वाइओ जोगो। मण्णइ य स माणसिओ तणुजोगो चेष य विभत्तो॥
-विशेभा० गा ३५६ टीका-'किं पुण' इति तथापि इत्यस्यार्थे । ततश्चेदमुक्तं भवति-यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only
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