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०२०९ सावज्जं जोगं ( सावद्य योग )
- दसवे० अ जागा ४०
पापयुक्त अथवा निन्दनीय मन, वचन, तथा काय का व्यापार | तदेव सावज्जं जोगं परस्सठाए निट्ठियं । कीरमाणं तिचा नश्चा सावज्जं न लवे मुणी ॥ अनिश्चितार्थं कथन अथवा स्वयं को अप्रिय लगनेवाली बात दूसरों के लिए प्रयोग करना - सावद्य ( वचन ) योग ।
.०२१० सावज्जं जोगं ( सावद्य योग )
- आव० अ ४
सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि (सामायिक सावद्य योग- प्रत्याख्यान )
- आव० अ ४
करेमि भंते ! लामाइयं सावज्जं ओगं पश्चक्खामि जाव नियम मुद्दत्तं -
- आव० अ ४
XXXI
हे भगवान् : मैं एक मुहूर्त के लिए सामायिक करता हूँ - सावद्य योग का प्रत्याख्यान करता हूँ । दो करण, तीन योग से ।
.०२११ सत्यमूसलाइ सावजजोग पश्च्चक्खाण प्रत्याख्यान )
एक्कारसमं पोसहोचवा सव्ययं
( शस्त्र - मूसलं
X X X
सावद्ययोग
- आव० अ ४
सत्थमूसलाइ - सावज्जजोग
पश्चक्खाणं ।
-आव० अ ४
ग्यारहवें पौषध व्रत में x x x शस्त्र - मूसल आदि सावद्य योग-व्यापार का प्रत्याख्यान | दो करण, तीन योग ये सावद्य योग-व्यापार न करूँगा न कराऊँगा, मन से, वचन से, काया से ।
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.०२१२ सुहं जोगं ( शुभ योग )
अनारम्भ शुभ कर्म में प्रवृत्ति ।
xxx तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा अणारंभा ।
टीका - प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुभश्च योगस्स्यात् संयतत्वात्, प्रमादपरत्वाच । इत्यत आह- 'सुहं जोगं पडुश्च' त्ति शुभयोग-उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादिकरणम् ।
आत्मारम्भ, परारम्भ, उभयारम्भ रूपकर्मों में उपयोगितावश उपेक्षादि करना —
-भग० श १३ १४८
शुभ योग ।
यह कथन प्रमत्तसंयत की अपेक्षा से है । प्रमत्तसंयत में संयम और प्रमाद रहने के कारण शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के योग होते हैं ।
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