________________
( ६४ ) पर्याय रूप में युक्त करता है वह योग है। यह कायादि भेद से तीन प्रकार का है, जैसे आत्मा का साधक रूप में गमनादि ( काय रूप में ), भाषण ( वचन रूप में ) तथा चिन्ता ( मन रूप में ) परिणमन होता है । ०२ सिद्धसेनगणि. कायिकं कर्मेत्यादि भाष्यम् । एकैकस्य कायादेः कर्म भवति, पावश्यं समुदितानामेवेत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमभिसम्बधनन् भाष्यकारः प्रत्येकमपि कर्मशब्दं कायिक कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्मेत्याह | भवतु नाम कायकर्म केवलं भूदकतेजोमारुतवनस्पत्यादिषु, वाकर्म मनाकर्म वा कस्मिन्नेकस्मिन् दृष्टमिति, न ब्र मो यथा कायकर्मेतरद्वन्द्वनिरपेक्ष तथा वाकर्मापीतरद्वन्द्वानपेक्षं मनःकर्म था, कि तहि ? कायव्यापाराभावेऽपि कायवतो चाग्यापारो दृष्टोऽप्रणिहतचेतसः, तथा कायवाग्व्यापाराभावेऽपि कदाचिन्मनोव्यापार एवकेषलो हृष्टः क्वचित, अतः समुदिताः कायादय-आत्माधिष्ठिता एककाश्च क्रियाहेतवः। तत्र कायप्रयोजनं कायिक, कायेन बा निवृत्तं, तत्र वा भवं, एवं वाचिकमानसे अपि वाच्ये। इतिशब्दः कर्मेयत्ताप्रतिपादनार्थः। एतावत् कर्मात्मनः कर्तुः शरीरै. कत्वपरिणामादभिन्नं करणं भवति, वीर्ये निर्वत्यै अन्योन्यानुगतिपरिणामाद् द्रव्यरूपाः कायादियोगा भावयोगं बीर्य निवर्तयन्ति । यथा कर्तुः शरीरस्य आगमने निर्वत्येऽप्यादौ कारणमभिन्नमेकत्वादेवमेते अपीति। अत एष एव शरीरात्मप्रदेशपिण्डः प्रतिषिशिष्ट क्रियाकारित्वव्यवच्छिन्नस्त्रिविधो योगो भवति । तिम्रो विधा यस्यासौ त्रिविध। -सिद्ध० अ ६ । सू १ । पृ० २-३
एक-एक कायादि का कम होता है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि सब के ( कायादि के ) सम्मिलित रूप से कर्म हो-इसी अर्थ का प्रतिपादन करने के लिए भाष्यकार ने कर्म शब्द को प्रत्येक के साथ सम्बद्ध किया है, अर्थात् कायिक कर्म, वाचिक कर्म और मानसिक कर्म। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति आदि में तो केवल कायकर्म हो । सकता है। किन्तु केवल वाकम अथवा केवल मनःकर्म किसी में होता है ऐसा नहीं कह सकते। जिस प्रकार कायकम इतर द्वन्द्व ( वाक्, मन) की अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार वाकर्म और मनः कर्म भी इतर द्वन्द्व की अपेक्षा नहीं रखता है। किसी कायवान जीव के असावधान अवस्था में कायिक व्यापार के अभाव में भी वारव्यापार होता है तथा काय और वाग व्यापार के अभाव में भी कदाचित मन का व्यापार होते कहीं देखा जाता है। इसलिए कायादि तीनों आत्माधिष्ठित होकर एक साथ या एक-एक पृथक रूप से कर्म के हेतु है।
काय को प्रयोजन बनाकर, काय के द्वारा निष्पन्न या काय में होनेवाला कमकायिक कर्म (काययोग) है। इसी प्रकार वचन को प्रयोजन बनाकर होनेवाला, वचन के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org