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( १०२ )
आत्मनस्त्रिविधषर्गणालम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पन्दः सयोगकेबलिनो योगविधिविधीयते, तदालम्बनाभावात् उत्तरेषां योगविधिर्नास्ति ।
अनेकान्ताश्च लावकादिवत् ॥ ११॥ यथा देवदत्तस्य जातिकुलरूपसंज्ञालक्षणसम्बन्धाद्यविशेषादेकत्वमजहतः बाह्योपकरणसम्बन्धोपनीतभेदलावकपाकादिपर्यायाना स्कन्दतः स्यादेकत्वं स्यादनेकत्वमित्यनेकान्तः तथा प्रतिनियतक्षायोपशमिकशरीरादिपर्यायार्थादेशात् स्यात्त्रैविध्यं योगस्य, अनादिपारिणामिकात्मद्रव्यार्थादेशात् स्यादेकविध्यमित्यनेकान्तः । ततो नायमुपालम्भः ।
- राज• अ ६ । सू १ । पृ० ५०४
आत्मपरिणाम की अविशेषता के कारण योग की त्रिविधता नहीं सिद्ध होती है ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार घटादि द्रव्य में रूपादि पर्याय के विवक्षा - व्यापार से अनेकविधता मानी जाती है उसी प्रकार विवक्षा व्यापार से योग की भी त्रिविधता होगी । अथवा, मानना चाहिए कि योग की त्रिविधता नहीं बनती है, क्योंकि आत्मपरिणाम अविशेष अर्थात् एक है। आत्मा निरवयव द्रव्य है और आत्मपरिणाम योग है जो अविशिष्ट है. -यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि रूपादि पर्याय के विवक्षा व्यापार से घट में अनेकविधता देखी जाती है । जिस प्रकार घट एक रहते हुए भी चक्षुरादि करण के सम्बन्धवश रूपरसादि परिणामों का भेद प्राप्त होता है उसी प्रकार आत्मपरिणाम एक होते हुए भी पर्याय भेद से योग का भेद जानना चाहिए ।
चक्षुरादि के द्वारा ग्रहण होने के कारण रूपादि का दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मपरिणाम के अभेद रहते हुए कायादि के पूर्व-कृत कर्मों के द्वारा संप्राप्त सामर्थ्य पाया जाता है । अथवा, घट में रूपादि का अध्यवसाय ठीक है, क्योंकि चक्षुरादि के द्वारा ग्रहण होता है। लोक में ग्रहण के भेद से ग्राह्य में भेद देखा जाता है ऐसा आत्मा का नहीं होता है—यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के अभेद रहते हुए भी कायादि में पूर्वकृत कर्मों से निष्पन्न सामर्थ्यं प्राप्त होता है । जैसे - पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय होने पर काय, वचन और मन की वर्गणाओं में से किसी एक का आलम्बन लेने पर वीर्यान्तराय कर्म रूप मति, अक्षरादि के आवरण के क्षयोपशम से संप्राप्त आभ्यन्तर वागुलब्धि के सान्निध्य में वचन परिणाम के अभिमुख आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन- हलन चलन होता है वह वायोग है । आभ्यन्तर वीर्यान्तराय रूप नौइन्द्रिय ( मन ) के आवरण के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के सान्निध्य में पूर्वोक्त रूप से बाह्य निमित्त - पुद्गल का आलम्बन लेने पर मनः परिणाम के अभिमुख आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दन मनोयोग है । वीर्यान्तराय के क्षयोपशम का सद्भाव रहते हुए औदारिकादि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक का आलम्बन लेने पर जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन होता है वह काययोग है । यदि क्षयोपशम लब्धि को आभ्यन्तर हेतु माना जाता है तो क्षय में क्यों कहा गया ! क्योंकि योगिकेवली के वयन्तराय के क्षय होने पर भी तीनों प्रकार का योग होता है । यदि
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