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सरीर-दव-वग्गणाए ओगाहणा असंखेजगुणा, वेउब्धिय-सरीर-दव्व-वग्गणाए ओगाहणा असंखेजगुणा, ओरालिय-सरीर-दव्व-वग्गणाप ओगाहणा असंखेजगुणा ति ।
----षट ० खं १, १ । सू ५६ । टीका । पृ १ । पृ० २६० औदारिकमिश्र में मिश्रता किसके साथ है ? इसके उत्तर में कहा गया है-कार्मण के साथ । जैसा कि शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में नियुक्तिकार ने कहा है --- जन्म के अनन्तर जीव कामण योग के द्वारा आहार ग्रहण करता है, उसके बाद जब तक शरीर की निष्पत्ति होती है तब तक मिश्र योग के द्वारा आहार ग्रहण करता है।
यहाँ पर मिश्रता तो उभयनिष्ठ है, यथा- औदारिक कार्मण से मिश्रित है उसी प्रकार कार्णण भी औदारिक से मिश्रित है। इस स्थिति में क्या कारण है इसको औदारिक ही कहा जाता है, कामण नहीं कहा जाता है। कहा जाता है-कथन ऐसा होना चाहिए जिससे श्रोताओं को विवक्षित अर्थ की प्रतिपत्ति निष्प्रतिपक्ष मालूम हो। अन्यथा सन्देहापन्न होने से विवक्षितार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होगी, फिर श्रोताओं का उपकार नहीं हो सका। कार्मण शरीर तो संसारी जीवों के सभी शरीरों में जीवन पर्यन्त संभव है, फिर तो कामणमिश्र कहने से यह नहीं जाना जाता है कि तिर्यच और मनुष्यों के अपर्याप्त अवस्था में होने वाला योग है अथवा देवों और नारकियों में होने वाला योग है। फिर तो उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता रहती है तथा यह योग कदाचित होनेवाला है। अतएव तटस्थ रूप से विवक्षितार्थ को समझाने के लिए औदारिक के साथ कहा जाता है-औदारिक मिश्र । जब औदारिक शरीरी वे क्रिय लब्धियुक्त मनुष्य और तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अथवा पर्याप्त बादर बायुकायिक वैक्रिय करता है तब तो औदारिक काययोग में वर्तमान रहकर ही प्रदेशों को विक्षिप्त कर वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रिय शरीर की पर्याप्ति से जब तक पर्याप्त नहीं हो जाता है तब तक यद्यपि वैक्रिय के साथ मिश्रता औदारिक शरीर की उभयनिष्ठ रहती है अर्थात वैक्रिय और कामण दोनों के साथ मिश्रता रहती है तथापि औदारिक शरीर से प्रारम्भ होने के कारण प्रधानता रहती है, अतः कहा जाता है-औदारिकमिश्र किन्तु वे क्रियमिश्र नहीं कहा जाता है। जब कोई आहारक लब्धि सम्पन्न पूर्वधर आहारक शरीर धारण करता है तब यद्यपि आहारक के साथ मिश्रता औदारिक शरीर की उभयनिष्ठ रहती है तथापि औदारिक शरीर के आरम्भक होने के कारण प्रधानता रहती है इसलिए कहा जाता है औदारिकमिश्र। आहारक के साथ भी मिश्रता स्वीकार नहीं की गई।
जहाँ कार्मण के साथ औदारिक की मिश्रता होती है उसको औदारिक मिश्र कहा जाता है। उत्पत्ति स्थान में पूर्व भव से आने के तुरन्त बाद प्रथम समय में जीव केवल कार्मण योग से ही आहार ग्रहण करता है, उसके बाद औदारिक का आरम्भ हो जाता है तथा जब तक शरीर की निष्पत्ति होती है तब तक कार्मण मिश्रित औदारिक योग से आहार ग्रहण करता है। केवली की समुद्घातावस्था के द्वितीय, षष्ठ और सप्तम समय में कार्मण से मिश्रित औदारिक योग का कथन आगम में स्पष्ट रूप से किया गया है। औदारिकमिश्र रूप काय के साथ योग-प्रवृत्ति को औदारिकमिश्र काययोग कहा जाता है ।
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