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उत्त० अ२१ । गा १३
•०२०५ सम्बजोगट्ठाणजीवा (सर्वयोगस्थानजीष )
-षट्० खं ४, २, ४ । सू २६ । टीका । पु १० । पृ०६८ सब योगस्थानवी जीवों की संख्या।
उक्कस्सजोगजीवमेत्तेण। सव्वजोगट्ठाणजीवा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण १ जवमझादो हेहिमजीवमेत्तेण ।
उत्कृष्ट योगस्थानवती जीवों की अपेक्षा से यवमध्य से नीचे के स्थानों में रहने वाले जीवों की संख्या रूप विशेषाधिक होनेवाले-सर्वयोगस्थानजीव । •०२०६ सातिजोगे ( सातियोग)
- सम० सम ५२। सू १ । पृ० १२३ मोहनीय कर्म का एक भेद ।
मूल-मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स बापन्नं नामधेजा पण्णत्ता, तं जहाकोहे कोवेxxx सातिजोगे x x x।
__ मोहनीय कर्म के ५२ नामों में एक नाम-सातियोग। शब्द के आधार पर मनवचन-काय की अति अशुभ प्रवृत्ति-सातियोग। ... टीकाकार भी अभयदेव सूरि ने 'सातिजोग' शब्द की कोई व्याख्या नहीं की है। .. •०२०७ साषजजोगं ( सापद्ययोग)
पापयुक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति ।
सव्वेहि भूएहिं दयाणुकंपी खन्तिक्खमे संजयबंभयारी। सावजजोगं परिषजयन्तो चरिज भिक्खू सुसमाहिइन्दिए॥ टीका-सापद्ययोगं वर्जयन् , सपापयोगं परित्यजन् ।
चारित्र पालन में वर्जनीय मन, वचन और काय की सपाप प्रवृत्ति- सावद्य योग । •०२०८ सन्धिदियजोगजंजणता (सर्वेन्द्रियजोगयुंजनता)
-ठाणा. स्था ७ । सू५८५ जिसमें सभी इन्द्रियों के योग की योजना हो।।
मूल-पसत्थकायषिणए सत्तषिहे पण्णत्ते तं जहा-आउत्तं xxx सन्धिदियजोगजंजणता।
टीका-सर्वेषामिन्द्रियाणां योगा-व्यापाराः योगा-व्यापाराः सर्वे पा ये इन्द्रिययोगास्तेषां योजनता-करणं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता।
जिस विनय में सभी इन्द्रियों के व्यापार संयोजित होते है वह सर्वेन्द्रिययोगयोजनता।
सर्वेन्द्रिययोगयोजनता सात प्रकार के प्रशस्त कायविनय का सातवाँ भेद है।
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