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.०२१२ सुहुमणिगोदजोगादो ( सूक्ष्मनिगोदयोग )
• खं ४, २४ सू ५७ टीका । १० पृ० २७७
- षट् •
सूक्ष्मनिगोद जीव का योग ।
पजत्तिसमाणकालो जहण्णओ वि एगसमयादिओ णत्थि, अंतोमुहुत्तो चेवेत्ति जाणावणमंतोमुहुत्तग्गहणं । किमहं सव्वलहुं पजत्ति णीदो ! सुहुमणिगोदजोगादो असंखेज़गुणेण बादरपुढविकाइयापजत्तजोगेण संचियमाणदव्वपडिसेहट्ठ ।
बादर पृथ्वी कायिक जीव के अपर्याप्त योग से असंख्यात गुणहीन - सूक्ष्मनिगोदयोग | सूक्ष्मनिगोद का योग सर्वतः लघुकाल स्थायी होता है ।
- ०२१३ सुहुमेइं दियजोगादो (सूक्ष्मए केन्द्रिययोग ) - षट् ० ० खं ४, २ सू ७ टीका | १० | पृ० ३२
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव का योग - प्रवृत्ति । बादरपुढचीजीवेसु अंतोमुहुत्तूणतसठिदीप ऊणियं कम्मठिदिमच्छिदो जीवो सो उक्कस्सदव्वसामी होदि । कुदो ? सुहुमेई दियजोगादोबादरेइ दियजोगस्स असंखेजगुणत्तु वलंभादो ।
बादर पृथिवीकायिक जीव में अन्तर्महूर्त कम त्रसस्थिति से हीन कर्मस्थिति रूप काल तक रहनेवाले जीव के उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामित्व होने में कारण बताया गया है सूक्ष्म एकेन्द्रिययोग से बादर एकेन्द्रिययोग का असंख्यात गुणा होना ।
.०२१४ सेज्जासमितियोग ( शय्यासमितियोग )
- पण्हा० अ दाद्वा ३ । सू ११ पृ० ६६६ पीठ - फलक - शय्यादि के निमित्त प्रयत्न - विशेष न करने रूप संयम का पालन | मूल - पीठ - फलग - सेजा - संधारगट्ठाए रुक्खान छिंदियव्वा, x x x एवं सेजासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरख्पा x x x दत्ताणुण्णाय ओग्गहरुई ।
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टीका - तृतीया भावना वस्तुशय्यापरिकर्म वर्जना नाम, तच्चैवंप्रकारेणाह पीठफलक शय्यासंस्तारकार्थनाय वृक्षस्तरुर्न छेदितव्यः, x x x समितः समितिभिः एको (S) सहायोऽपि रागाद्यभावात् खरेत् - अनुतिष्ठेत् धर्मचारित्रधर्म एवं शय्यासमितियोगेन भावितो वासितो भषति अन्तरात्मा जीवः । आत्मा को भावित करने के लिए साधु का पीठ फलक- शय्यादि के निमित्त वृक्ष के छेदन से वर्जित रहने रूप संयम को धारण करना - शय्यासमितियोग |
यह अहिंसा की वस्तुशय्यापरिकर्म वर्जना नाम की तीसरी भावना है ।
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