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( ४ ) यथा हे देवदत्त ! घटमानय गां देहि मह्यमित्यादि, तद् एतत् स्वरूपमात्रप्रतिपादनं व्यावहारिक विकल्पज्ञानम् । न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृत्यसत्यामृषमनोयोग इति व्याख्यातश्चतुर्धा मनोयोगः । -कर्म० मा ४ । गा २४ । टीका ताभ्यां सत्यमोषाभ्यां व्यतिरिक्तोऽसायमोषमनोयोगः ।
- षट् • खं १, १ । सू ४६ । टीका । पु १ । पृ० २८१ जो न सत्य हो और न मिथ्या हो वह असत्यामृषा । विशेष जिज्ञासा रहने पर पदार्थ को प्रतिष्ठित करने की इच्छा से सर्वज्ञ मतानुसार विकल्प किया जाता है, यथा-- जीव सदसत् रूप है, यह आराधक होने के कारण सत्य कहा गया। और, फिर जिज्ञासा होनेपर पदार्थ को प्रतिष्ठित करने के लिए सर्वज्ञ मत से बाहर विकल्प किया जाता है, यथा-जीव एकान्त नित्य नहीं है, यह विराधक होने के कारण मिथ्या है। फिर, पदार्थ को प्रतिष्ठित करने की इच्छा के बिना स्वरूप मात्र का पर्यालोचन करते हुए कोई किसी को आज्ञा देता है - देवदत्त से घट ले आओ तथा गाय माँग लेना, इत्यादि चिन्तन असत्यामृषा है, क्योंकि इससे स्वरूप मात्र का पालोचन होता है, अतः यह न तो उपर्युक्त रूप से सत्य है और न मृषा। इसको भी व्यवहार नय की अपेक्षा से देखना चाहिए, अन्यथा जो कुछ देवदत्त को ठगने की बुद्धि से कहा गया उसका असत्य में जन्तर्भाव हो जायगा और जो वास्तविक है उसका अन्तर्भाव सत्य में हो जायगा। ऐसे मन के प्रयोग-व्यापार को असत्या-मृषामनोयोग कहा जाता है। ०२.०५ वचनयोग की परिभाषा
चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नपचनानि चतुर्विधान्यपि तद्व्यपदेशं प्रतिलभन्ते तथा प्रतीयते च। -षट • खं १ । १ । सू ५२ । टीका । पु १ । पृ० २८६
भासावग्गणवखंधे भासारूवेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्पंदो पचिजोगोणाम। -षट् • खं ४ । २ । ४ । सू १७५ । टीका । पु १० । पृ. ४३७ तथा षचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः।
----षट • खं १ । १ । सू ४७ । टीका । पु १ । पृ१ २७६ वचनं वाक्-औदारिकवै क्रियाहारकशरीरव्यापाराहतबागद्रव्य समूहसाचिव्याजीपव्यापारो, वाग्योग इति भावः ।
-ठाणा० स्था १ । सू २० । टीका ____ उच्यत इति वचनं भाषापरिणामापन्नः पुद्गलद्रव्यसमूह इत्यर्थः, तेन वचनेन सहकारिकारणभूतेन योगो वचनयोगः, वचनविषयो वा योगो पचनयोगः।
-कर्म० मा ४ । गा १० । टीका । पृ० १२८ भासावग्गणक्खंधे भासारूपेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्फंदो वचिजोगो णाम | -षट० खं ४, २, ४ । सू १७५ । टीका । पृ १० । पृ० ४३७
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