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.०१९१ सगसगउवजोगजोगआदीहिं ( स्वक- स्वक- उपयोग योग आदि )
— गोक० गा ४६ •
स्व-स्व गुणस्थान के आधार पर होनेवाले उपयोग, योग आदि । उदयद्वाणं पर्याडि सगसगउबजोगजोगआदीहिं । गुणवत्ता मेलविदे पदसंखा पयडिलंखा य ॥ मोहनीय की स्थानसंख्या और प्रकृतियों की संख्या जानने के साधन स्वरूपस्वकस्वक उपयोगयोग आदि ।
यहाँ प्रकरण मोहनीय की स्थानसंख्या तथा प्रकृतियों की संख्या जानने का है । अपने-अपने गुणस्थान में होनेवाली उदयस्थानों की संख्या तथा उन स्थानों की प्रकृतियों की संख्या को उपयोग, योग तथा आदि पद से संयम, देशसंयम, लेश्या और सम्यक्त्व की संख्या से गुणा करके फिर सबको जोड़ देने पर जो संख्या बनती है उतनी ही वहाँ पर मोहनीय की स्थानसंख्या और प्रकृतियों की संख्या होती है ।
.०१९२ सच मणपओगे ( सत्य- मनःप्रयोग )
मन का सत्यपरक व्यापार ।
मूल - मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा - सचमणपभोगे
- सम० सम १५ / सू ७ पृ० ४४
× × ×।
टीका - सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो - व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः ।
सत्यार्थ के प्रतिपादन में निबद्ध मन का प्रयोग - व्यापार — सत्यमनः प्रयोग |
.०१९३ सचमणप्पओगे ( सत्यमनः प्रयोग )
सत्य रूप मन का व्यापार ।
पण्णरसबिहे पओगे पन्नत्ते, तंजहा - सच्च मणप्पओगे १ × × × टीका- 'सश्चमणप्पओगे' इत्यादि, सन्तो मुनयः पदार्था वा तेषु यथासंयं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थितस्वरूपचिन्तनेन च साधु सत्यं - अस्ति जीवः सदसद्रूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थित वस्तुचिन्तन परं सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनःतस्य प्रयोगो- - व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः x x x
"
तथा पदार्थ को 'सत्' कहा जाता है। मुनियों में मुक्ति प्राप्ति की इच्छा से यथावस्थित स्वरूप का चिन्तन तथा पदार्थों में सत्-असत् रूप जीव को देहमात्र व्यापी यथावस्थित वस्तु का चिन्तन करना - सत्यमनःप्रयोग |
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- पण्ण० प १६ / सू २०६८
·०१९४ सच्चमोसवइत्पओगे ( सत्यमृषावचनप्रयोग ) - पण्ण० प १६ । सू २०६८ आंशिक सत्य और आंशिक मिथ्या वचन का प्रयोग करना ।
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