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१७६ मणो-षयण-कायजोगाणं (मन-वचन-काययोग) -ध्याश गा०३७ मन-वचन-काय का व्यापार ।
जो (तो) जत्थ समाहाणं होज मणो-वयण-कायजोगाणं ।
भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स ।। टीका- x x x 'यत्र' ग्रामादौ स्थाने 'समाधान' स्वास्थ्यं 'भवति' जायते, केषामित्यत आह-'मनो-वाकाययोगानां' प्राग्निरूपितस्वरूपाणामिति, आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाकाययोगसमाधानं तत्र क्वोपयुज्यते ? नहि तन्मयं ध्यानं भवति, अत्रोच्याते, तत्समाधानं तावन्मनोयोगोपकारक xxx।
यहाँ पर प्रकरण ध्यान का है । ध्यान के समय मनोयोग का समाधान होना अपेक्षित माना गया है। यहाँ पर वचनयोग और काययोग के समाधान को मनोयोग के समाधान में उपकारक कहा जया है। ०१७७ महवाइजोगा (मार्दवादियोग)
-प्रवसा० गा८४४ मार्दव, आर्जव आदि गुणों का संयोग ।
इय महवाइजोगा पुढ़वीकाये हवंति दस भेया ।
आउकायाईसुधि इअ एए पिंडिअं तु सयं । टीका-'इये' त्यादि, 'इति' अनेनैष पूर्वोक्ताभिलापेन मार्दवादियोगातमार्दवाजवादिपदसंयोगेन 'पृथिवीकाये' पृथिवीकायमाश्रित्य पृथिवीकायारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः सम्भवन्ति-स्युर्दश भेदाः-दशशीलविकल्पाः, अप्कायादिष्वपि नवसु स्थानेषु, अपिशब्दो दशेत्यस्येह सम्बन्धनार्थ इत्यनेन क्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः 'पिडियं तु' त्ति प्राकृतत्वात् पिण्डिताः पुनः सन्तः अथवा पिण्डितं-पिण्डमाश्रित्य शतं-शतसंख्याः स्युरिति ।
पृथ्वीकाय की अपेक्षा मार्दव-आर्जव आदि दस प्रकार के शीलविकल्प होते हैं जिनको मार्दवादियोग कहा गया है ।
इसी प्रकार अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अजीवकाय ~~इन नवों में भी दस-दस प्रकार के शीलविकल्प माने गये हैं। सभी मिलकर १०० प्रकार के शोलविकल्प तथा इसी आधार पर १०० प्रकार के मार्दवादियोग भी माने गये हैं। .०१७८ महवाइजोगा ( मार्दवादियोग)
-प्रवसा गा ८४४ इय महवाइजोगा पुढषीकाए हवंति दस भेया। आउक्कायाईसुवि इस एए पिडिअं तु सयं॥
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