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( ५२ ) .०१६४ परिणाम जोगेण ( परिणामयोग)
-पउम० उ श्लो १२ अणुवय-महव एहिय, बालतवेण य हवन्ति संजुत्ता।
ते होन्ति देवलोए, देवा परिणाम जोगे। जो अणुव्रत और महाव्रत का पालन करते हैं और बालक की भाँति समझे-बूझे बिना बालतप करते हैं, अपने-अपने परिणाम योग से देवलोकों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं । .०१६५ पुषरयपुषकीलियविरतिसमितिजोगेण (पूर्वरतपूर्वक्रीडितविरतिसमितियोग)
-पण्हा अहादा ४।सू १०।पृ० ७०२ संयम ग्रहण कर पूर्वकाल की अनुभूत रति-क्रीडादि के प्रति विरति रूप संयम का पालन ।
मूल-चउत्थं-पुत्वरय-पुन्वकीलिय-xxx अणुचरमाणेणं बंभचेरं न ताई समणेण लब्भा दट्टुं न कहेउ नवि सुमिरेउ जे । एवं पुन्वरय-पुव्वकीलिय विरति समितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा. x x x जिई दिए बंभचेरगुत्ते।
टीका- xxx एवमुक्तप्रकारेण पूर्वरतं पूर्वपरिचितरत-सम्भोगादिक पूर्वक्रीडितं द्यूतादिकं तेन विरतिनिवृत्तिसमितियोगेन भावितो वासितो भवति अन्तरात्मा-जीवः।
आत्मा को भावित करने के लिए साध के साधत्व ग्रहण लेने पर पूर्व परिचित सम्भोगादि तथा घृतादि क्रीडा के प्रति विराग धारण कर संयम में जागरूक रहनापूर्वरतपूर्वक्रीडितविरतिसमितियोग । .०१६६ पसत्थजोगपडिवन्ने (प्रशस्तयोगप्रतिपन्न)
शुभ योगों से युक्त।
गरहणयाए णं अपुरकार जणयइ। अपुरकारगए णं जीवे xxx पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणन्तघाइपजवे खवेइ ।
अनन्त घाती कर्मों के पर्यायों को निजीर्ण करने में कारणभूत-प्रशस्तयोग प्रतिपन्न ।
आत्मगहों से अपुरस्कार अर्थात् आत्मनम्रता आती है और आत्मनम्र साधक स्वतः प्रशस्तयोगों से प्रतिपन्न हो जाता है । '०१६७ पुषणिरुद्धजोगेहि ( पूर्वनिरुद्धयोग)
-षट० खं ४, २, ४।सू ४७।टीका।पु १०।पृ० २६० पूर्व काल में निरोध किये गये योग ।
xxxअण्णेगोतप्पाओग्गउक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च आउयं बंधिय जलचरेसुप्पजिय कदलीघादं कादूण रूबूणुकत्सबंधगद्धाए पुश्वणिरुद्ध
-उत्त० अ २हासु८
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