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१८)
अभियोगी भावना के द्वारा ख्याति की इच्छा रखनेवाले साधुओं का परभब में उत्पत्ति स्थान - आभियौगिक ।
अच्युत कल्प पर्यन्त के देव आभियोगिक कहलाते हैं ।
०४२ आयजोगे ( आत्मयोग)
स्वस्थ मन की शुभ प्रवृत्ति ।
xxx एवं से भिक्खू आयडी x x x आयजोगे x x x आयाणमेब पडिसाहरेज्जासि x × × |
टीका - XXX आत्मयोगः कुशलमनः प्रवृत्तिरूपः स यस्यास्ति - स आत्मयोगी x x x आत्मानं संयमेन संसारचक्रान्निष्कामयतीति x x x 1
सू० अ २२ सू ४२
संयम के द्वारा संसारचक्र से आत्मा को निष्कासित करने के लिए अध्यवसाय के द्वारा स्वस्थ मन की संयम की दिशा में प्रवृत्ति - आत्मयोग |
• ०४३ आयप्पओगेण ( आत्मप्रयोग )
स्वकीय प्रयोग अर्थात् पराक्रम ।
मूल - गोयमा ! आयप्पओगेण गच्छइ, नो परष्पओगेण गच्छइ । टीका- 'आयप्पओगेणं' ति न परप्रयुक्त इत्यर्थः ।
यहाँ प्रकरण वायुकाय का है। किसी भी काय की गति करने में निमित्तभूत स्वकीय प्रयोग अर्थात् पराक्रम - आत्मप्रयोग |
-भग० श ३ ४ ४ प्र १६८ | पृ० १६३
• ०४४ आयडिया जोगा ( आयतार्थ योग )
--- उत्त० अ २हागा ३४
यथालाभ से सन्तोष तथा पर लाभ के प्रति इच्छा न करानेवाला योग । संभोगपश्चक्खाणेणं आलम्बणाई खवेइ । निरालम्बणस्स य आययट्ठिया जोगा भवन्ति । सपणं लाभेणं संतुस्सइ परलाभं तो आसाएइ XXX ।
संभोग प्रत्याख्यान से जिनके आलम्बन नष्ट हो गये हैं उनके अर्थात् निरालम्बन साधक के होनेवाला योग - आयतार्थ योग ।
• ०४५ आराहिय- नाण- दंसण- खरितजोग (आराधित- ज्ञान-दर्शन- चारित्रयोग) - सम० प्रकी ६४
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ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना ।
आराधिता ज्ञानदर्शनचारित्रयोगा यैस्ते × ×/
जिस साधना के द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना होती है वह ज्ञानदर्शन - चारित्रयोग |
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