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टीका-योगाः- मनोवाकायव्यापाराः ते चेह प्रशस्ता एच विवक्षिता. स्तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति ।
शिष्य को आचार्य के द्वारा शिक्षा के रूप में प्राप्त होनेवाले मन, वचन और काय के प्रशस्त व्यापारों का एक वर्गीकरण-योगसंग्रह ।
प्रशस्त योगसंग्रह में आलोचना, निरपलाप आदि ३२ प्रकार बताये गये हैं । ०१२१ जोगसमाहाणमुत्तमं ( उत्तम योगसमाधान )
---ध्याश० गा३८ उत्तम-शुभयोग की प्राप्ति ।।
कालोऽवि सोश्चियजहिं जोगलमाहाणमुत्तमं लहइ ।
न उ दिवस-निसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं । टीका-xxx 'योगसमाधान मनोयोगादिस्वास्थ्यम् 'उत्तम प्रधान 'लभते' प्राप्नोति xxx।
यहाँ पर काल के आधार पर ध्यान का विवेचन है। ध्यान करते समय शुभ योग होना आवश्यक है। इस कार्य में दिन-रात का कोई नियम नहीं है, मन के स्वस्थ रहने पर ध्यान भी स्वस्थ होता है। यहाँ पर मन, वचन और काय के स्वस्थ व्यापार को योगसमाधान कहा गया है।
-आव अ४
०१२२ जोगहीणं ( योगहीन )
आगमे तिविहे पण्णतेx x x जोगहीणं x x x ।
आगम तीन प्रकार का कहा है। उसके चौदह अतिचार है-उसका एक अतिचार है योग हीन स्वाध्याय किया हो।
नोट- ज्ञान का एक अतिचार योगहीन है । ०१२३ जोगा (योग)
-सम० सम ५ । सू ४ । पृ०१३ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति । मूल-पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा-मिच्छत्तं x x x जोगा। टीका-आश्रवद्वाराणि-कर्मोपादानोपाया मिथ्यात्वादीनि।
जीव द्वारा कर्मों को ग्रहण करने के एक उपाय भूत मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ-योग
आस्रव-कर्मोपादान के पाँच कारणों में एक कारण योग भी है। ०१२४ जोगाणुभावजणियं ( योगानुभावजनित )
-ध्याश० गा ५१ योग और अनुभव से जनित कर्मविपाक ।
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