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"पुढवी-आउक्काय-तेऊ वाऊ-वणस्सइ-तसाणं पडिलेहणापमत्तो छह पि पिगहओ होइ।" तथा "सम्वो पमत्तजोगो समणस्सो होइ आरंभो” 'त्ति । अतः शुभाऽशुभौ योगावात्मारम्भादिकारणमिति ।
आत्मारम्भ, परम्भ, उभयारम्भ रूप अशुभ कमों में प्रवृत्ति- अशुभ योग ।
यहाँ पर प्रमत्तसंयत की अपेक्षा से कथन है। प्रमत्तसंयत में अनारम्भ के कारण शुभ तथा आरम्भ रहने के कारण अशुभ दोनों प्रकार के योग होते हैं। .०३९ आओगपओगसंपउत्ते ( आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्त )-सूय० श्रु २।अ ७गा ६६
अर्थ-साधन तथा प्रायोगिक साधनों से युक्त ।
तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई x x x आओगपओगसंपउत्ते xx + बहुजणस्स अपरिभूए याषि होत्था ।+ + + ।
टीका-+ + + आयोगः अर्थोपायाः यानपात्रोष्ट्रमण्डलिकादयस्तथा प्रयोजनमयोगः प्रायोगिकत्वं तैरायोगप्रयोगैः संप्रयुक्तः समन्वितः + + + । - यान, पात्र, उष्ट्र, माण्डलिकादि आर्थिक साधन तथा जिन वस्तुओं का यात्रादि में प्रयोजन होता है उनसे युक्त आयोग-प्रयोगसम्प्रयुक्त। ...
यह लेप गाथापति का विशेषण है। .०३० आदेसुक्कस्सजोगट्ठाणदध्वं ( आदेश उत्कृष्ट योगस्थानद्रव्य)
-षट • खं ४, २, ४.सू ४६।टीका पु १०।पृ० २६६ प्रक्षेपाहार का प्रमाण निकालने में उपयोगी उत्कृष्ट योगस्थान द्रव्य ।
आउअउक्कस्सदव्वे उकल्सबंघगद्धाए ओवट्टिदे आदेसुक्कस्सजोगट्ठाण दव्वं होदि।
आयुष्य के उत्कृष्ट द्रव्य को उत्कृष्ट बन्धक काल से अपवर्तित करने पर प्राप्त होने वाला संख्याप्रमाण-आदेश उत्कृष्ट योगस्थानद्रव्य । ०५१ आभियोगिए.सु-आभिओगेसु (आभियौगिक )
-भग० श ३।उ ५।प्र २१६।पृ. १६६ अभियोग में रत रहनेवाला देवों का एक वर्ग विशेष ।
मूल -- मायी णं भंते! तस्स ठाणस्ल अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, x x x अण्णयरेसु आभियोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उवधज्जइ ।
टीका-तत्र चाभियोगिऽपि विकुर्वणा इति मन्तव्यम्-विक्रियारूपत्वात् तस्य। 'अन्नयरेसु' त्ति आभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्ति इति कृत्वा अन्यतरेषु इत्युक्तम् ।
___ अभियोग--विक्रिया के द्वारा नये-नये रूप धारण करनेवाला एक देवों का वर्ग तथा
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