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.०६८ किहिगदजोगो ( कृष्टिगतयोग) - :- -
-षट • ख ४, २, ४।सू १०७/टीकापु १०।पृ० १२५ योग की क्रियाओं का मन्द होना।
किट्टिकरणे णिहिट से काले पुवफहयाणि च अपुवफहयाणि किहिसरूवेण परिणामेति । ताधे किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयति । एषमतोमुठुत्तकाल किहिगदजोणो सुहुमकिरियमप्पडियादिशाणं झायदि।
सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाती ध्यान का ध्याता कृष्टिकरण के समाप्त होने पर पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्द्धक का कृष्टिस्वरूप से परिणमन करता है। इस समय में उसके कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का वेदन होता है । इस प्रकार अन्तर्महूर्त काल पर्यन्त वेदन होना कृष्टिगतयोग। •०६९ कमधिसुद्धाओ लेसाओ ( क्रमविशुद्ध लेश्या) -ध्याश• गा ६६ .. होति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्ह-सुक्काओ।
धम्मज्माणोवगयस्ल तिव्व-मंदाइभेयाओ।। टीका- x x x 'क्रमविशुद्धाः' परिपाटिविशुद्धाः, का: १-श्याः, ताश्च पीत-पद्म-शुक्लाः, एतदुक्तं भवति-पीतलेश्यायाः पद्मलेश्या विशुद्धा तस्या अपि शुक्ललेश्येति क्रमः, कल्यता भवन्त्यत आह-'धर्मध्यानोपरातस्य' धर्मध्यानयुक्तस्येत्यर्थःxxxi '०७० कम्मइयक्रायजोगिअसंजदसम्मादिट्ठीणं (कार्मककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि)
-षट • खं १, ७ासू ४०।टीका।पु ५ पृ. २२१ कार्मणकाययोग के धारक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव।
टीका-कम्मइयकायजोगिअसंअदसम्मादिट्ठीणं ओवसमियखाय-खोवसमियभावेहि, सजोगिकेवलीणं खइएण भावेण ओघम्मि गदगुणहाणेहि साधम्मुषलंभा।
... कार्मणकाययोग के धारक असंयत सम्यग्दष्टि जीव में औपश मिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव होते हैं और सयोगिकेवली में क्षायिक भाव होता है, अतः क्षायिक भाष की अपेक्षा से सयोगिकेवली से साधर्म्य रखनेवाला-कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि । '०७१ कम्मासरीरकायप्पओगे (कार्मणशरीरकायप्रयोग) -पण्ण० प १६।सू १०६८
किसी कर्म-कार्यविशेष के सम्पादनार्थ विहित तेजस-कामण शरीर की चेष्टा ।
पण्णरसविहे पओग पण्णत्ते--तं जहा- x x x कम्मासरीरकायप्पओगे १५xxxi
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