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गोम्मटसार में आहारक काययोग के धारक एक समय में एक साथ उसका ५४ होते है तथा आहारकमिभ काययोगी सत्ताइस होते है।
गोम्मसार की मान्यता के अनुसार गुणस्थान में योग के विषय में ऐसा विवेचन मिलता है।
पर्याप्त गुणस्थानों में योग ११, अपर्याप्त गुणस्थानों में योग ४, विभंग शान सहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में योग १३ ( आहारक द्वयरहित , पर्याप्त मिथ्याष्टि में योग १. अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि में योग ३, सास्वादान गुणस्थान में योग १३, पर्याप्त सास्वादान में योग १०, अपर्याप्त में योग ३, सम्यग-मिथ्याष्टि गुणस्थान में योग १०, असंयत सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान में योग १३, इसके पर्याप्त में १० योग, अपर्याप्त में तीन योग होते है। देश संयत गुणस्थान में ६ योग, प्रमत्त संयत में ११ योग होते है । अप्रमत्त संपत से क्षीण कषाय गुणस्थान में है योग होते हैं। सयोगि-केवलि गुणस्थान में ७ योग होते है। अयोगी केवली गुणस्थान में योग नहीं होता है।' गुणस्थान में मान्यता भेद
दिगम्बर मान्यता देशविरत में
8 योग प्रमत्त संयत में- १२ योग अप्रमत्त से क्षीण कषायीतक-६ योग
श्वेताम्बर मान्यता
१२ योग १४ योग ५योग
प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक सभी जीव सयोगी होते है अतः सयोगी होने से वे सक्रिय है व सलेशी है। वे सयोगी प्रतिक्षण कोई न कोई क्रिया करते रहते हैं। किसी भी क्षण में अक्रिय नहीं होते हैं अतः उनके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता रहता है। विग्रहगति में भी जीव कार्मण काययोग से क्रिया करता है। जीव क्रिया सभी शरीरों से करता है । ये सभी क्रियाएँ परिस्पंदात्माक है। नरक-तियं च तथा देवगति के जीव नियम से सयोगी होते हैं वे अयोगी कभी भी नहीं हो सकते है। मनुष्य सयोगी भी होते हैं अयोगी भी होते हैं। कहा है
नस्थि हु सकिरियाणं अबंधगकिंचि इह अणुहाणं ।
-आव० मलय टीका उक्त मा• गा । १४६
अर्थात् क्रिया करता हुआ ऐसा कोई जीव नहीं है जो कम का बंध न करता है। अयोगी के कर्म बंध नहीं होता है, सयोगी के कर्म बंध होता है।
योग, शरीर तथा इन्द्रिय का निर्माण करते हुए जीव के कायिकी क्रिया पंचक की कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती है। कषाय आदि सातों समुद्घात में सयोगी होता है। आचार्य मलयगिरि ने आवश्यक की टीका में एवंभूत
१ गोजी गा ७२८ । टीका
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