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मूल-सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पढम-xxx। अहवा-xx x अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेषलणाणे चेव ।
टीका-सह योगैः-कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी x x x । 'अथवे' त्यादि, चरमः-अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा।
कायादि के व्यापार से युक्त सयोगी अवस्था के अन्तिम समय से पूर्व होनेवाला केवलज्ञान-अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान ।
सयोगिभवस्थ केवलज्ञान का यह एक वैकल्पिक भेद है । .०४ अजोग ( अयोग)
-सम° सम ५।सू पापृ०१३ मन-वचन-काय की अप्रवृत्ति । मूल-पंच संबरदारापण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्तं xxx अजोगा।
टीका-संवरस्य - कर्मानुपादानस्य द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणिमिथ्यात्वाद्याधबविपरीतानि सम्यक्त्वादीनि |
संवर अर्थात् कर्मों के न ग्रहण करने के एक उपायभूत मन, वचन और काय की अप्रवृत्ति-अयोग।
संवर के पाँच कारणों में एक कारण अयोग भी है तथा कर्मादान के पाँच कारणमिथ्यात्वादि के पाँचों विपरोत हैं । .०५ अजोगा ( अयोग)
-सम. सम ५॥सू५ योग रहित अवस्था विशेष ।
पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्तं विरई अप्पमाया अकसाया अजोगा।
टीका-संवरस्य कार्मानुपादानस्य द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणिमिथ्यात्वाद्याश्रवद्वारविपरीतानि सम्यक्त्वादीनि ।
संवर अर्थात् कर्म पुदगलों के अग्रहण के लिए एक कारण विशेष- अयोग ।
संवर के सम्यक्त्व आदि पाँच कारणों में अन्तिम कारण अयोग है। .०६ अजोगिजिणे ( अयोगिजिन )
-गोक• गा ६३८८ योग रहित होकर जिन स्वरूप होनेवाले ।
मिच्छादिगोदभंगा पण चदु तिसु दोणि अट्ठठाणेसु ।
एक्केकाजोगिजिणे दो भंगा होति णियमेण ॥ गोत्रकर्म का एक-एक भंग अर्थात् उच्चगोत्र या नीचगोत्र होनेवाला स्थान या पात्र-अयोगिजिन ।
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