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.०७ अजोगिभवत्थकेवलणाणं ( अयोगिभवस्थकेवलज्ञान) -नंदी० सू ३५
योगरहित अवस्था में होनेवाला केवलज्ञान । - मूल-से कि तं भवत्थकेवलणाणं १ भवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णतं । तं जहा-xxx अजोगिभवत्थकेवलणाणं च ।
टीका-योगोऽस्य विद्यते इति योगी न योगी अयोगी अयोगी चासौ भवस्थश्च अयोगिभवस्थः शैलेश्यवस्थामुपगत इत्यर्थः तस्य केवलज्ञानमयोगिभषस्थ केवलज्ञानम् ।
जिस साधक के मन, वचन और काय के व्यापार अतीत हो गये हैं अर्थात शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर गया है, उसके उस स्थिति में रहने वाला केवलज्ञान-अयोगिभवस्थकेवलज्ञान ।
अयोगिभवस्थकेवलज्ञान भवस्थकेवलज्ञान का दूसरा भेद है । .०८ अजोगिभवस्थकेवलणाणे ( अयोगिभवस्थकेवलज्ञान )
___-ठाणा० स्था ।उ ।सू ८६पृ० ५०६ योगरहित अवस्था में रहनेवाला केवलज्ञान ।
मूल-भवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-xxx अजोगिभषत्थकेवलणाणे चेय।
टीका-न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसापयोगी-शैलेशीकरणव्यवस्थितः, xxx ।
जिसके मन, वचन, काय का व्यापार नहीं है अथवा जो योगी-मन, वचन, काय को व्यापृत करनेवाला नहीं है उसका केवलज्ञान-अयोगि-भवस्थज्ञान । .०९ अयोगिम्मि ( अयोगी)
-गोक० गा ७०३ मन, वचन और काय की चेष्टाओं से रहित ।
जोगिम्मि अजोगिम्मि य तीसिगितील णवट्ठयं उदओ।
सीदादिचऊछक्कं कमसो सत्तं समुदि। .१० अजोगत्तं ( अयोगत्व)
-उत्त० अ २६।सू ३८ ___ मन, वचन और काय की प्रवृत्तिहीनता।
जोगपच्चखाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगी णं जीबे नवं कम्मं न बन्ध पुव्यबद्ध निज्जरेइ।
नये कर्मों के उपादान को रोकने तथा पूर्वबद्ध कर्म को निर्जीर्ण करने में निमित्तभूत- अयोगत्व।
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