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कहा जाता है कि भगवान महावीर उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन के बाद सेंतीसवाँ प्रधान नामक मरुदेवी का अध्ययन कहते-कहते पयंकासन में स्थिर हुए, क्रमशः पादर पचनयोग का निरोध क्रिया। वाणी के, मन के सूक्ष्म योग को निरोध किया। शुक्लध्यान के सूक्ष्म उपचार से क्रिया-अप्रतिपाती तीसरे चरण को प्राप्तकर सूक्ष्म काययोग का निरोध किया। अनिवृत्ति के चौथे चरण में पहुँचे । अयोगी अवस्था में रहे। सिद्ध के प्रथम समय में चार अघाति-कर्म का क्षय कर परिनिर्वाण प्राप्त किया ।
पूर्वधर श्री यशोभद्रसूरि की भविष्य वाणी के अनुरूप जैन धर्म की उदय - उदय पूजा उत्कर्ष के रूप में तेरापंथ का प्रादुर्भाव हुआ।
श्वेताम्बर मतानुसार तीर्थंकरों के प्रथम चार कल्याण ( गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवल ज्ञान ) एक ही नक्षत्र में होते हैं परन्तु परिनिर्वाण उसी नक्षत्र में हो सकता है, अन्य नक्षत्र में भी हो सकता है । इसके विपरीत दिगम्बर मतानुसार तीर्थंकरों के कल्याण के विषय में अलग मान्यता है। नक्षत्र भिन्न-भिन्न हो सकते है। यथा-भगवान् महावीर के पाँच कल्याण का नक्षत्र इस प्रकार रहा
१ गभ-उत्तराषाढ़ा नक्षत्र २ जन्म-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ३ दीक्षा४ केवलज्ञान-मघा नक्षत्र ५ परिनिर्वाण-स्वाति नक्षत्र
कहा है
आहारो पजते इदरे खलु होदितस्स मिस्सोदु । अंतो मुत्तकाले छठ गुणहाणे होदि आहारो॥
-गोजी० ६८३ आहारक काययोग संशीपर्याप्त छठे गुणस्थान में जघन्य और उत्कृष्टतः अंतमहूर्त काल में ही होता है। आहारकमिश्र काययोग संशी अपर्याप्त अवस्था में छठे गुणस्थान में जघन्य-उत्कृष्ट से अन्तर्महूर्त काल में ही होता है।
अस्त आहारक काययोग व आहारकमिभ काययोग चतुर्दशपूर्वधर को होता है। कहा है।
ओरालियमिस्सं वा चउगुणठाणेसु होदिकम्मइयं । चद्गदिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोग पुरणगे ॥
-गोजी• गा ८४ अर्थात औदारिकमिभ काययोग की तरह कामण काययोग चार गुणस्थानों में होता
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