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.०४.०५ योग-कोश
.०० शब्द विवेचन '०१ व्युत्पत्ति ०१०१ प्राकृत में 'जोग' शब्द की व्युत्पत्ति
रूप-~-जोग, जो पद-संज्ञा लिंग-पल्लिङ्ग धातु-जुज्ज ( युज )> जुज्जइ-जोड़ना, युक्त करना
जुज ( युज् )>जुजइ-जोड़ना, युक्त करना जोग--संस्कृत के 'योग' शब्द' में 'आदेयों जः' ( हेम०८।१।२४५ । (पदादेयस्य जादेशः जसो जाइ जमो यथा-स्वोपज्ञ वृत्ति) सून्न से आद्य यकार को जकार आदेश होकर प्राकृत का 'जोग' शब्द निष्पन्न होता है।
प्राकृत 'जोग शब्द में विकल्प से 'ग' का लोप होकर 'अ' बनता है। क-ग-च-जत-द-प-य-वां प्रायो लुक् ( हेम० ८।१७७ ) ( स्वरात् परोऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तु सन्ति ये तेषाम् । क-ग-च-ज-प-य-वानां प्रायो लुक् प्राकृते भवति ।। के-तित्थयरो लोओ गे-नयरे स्यात् नओ मयंको च । ( स्वोपज्ञ वृत्ति )।
ठाण० स्था ३।७१। सू १२४ की टीका में अभयदेव सूरि ने 'तिविहे जोए' शब्द का प्रयोग किया है। अन्यत्र प्रायः 'जोग' शब्द मिलता है।
'जोए-जोअ' रूप का प्रयोग भिन्न अर्थ में 'सूरपण्णत्ती' में मिलता है ।
जोए-तत्थ खलु इमे दसविहे जोए पन्नत्ते, तं जहा वसुभाणजोएxxx चरमसमए।
- सूर० प्रा १२ । सू ७८ यहाँ 'जोए' शब्द का अर्थ है-ग्रह-नक्षत्रों का विशिष्ट आकारात्मक संयोग । ०१०२ पाली में 'बोग' शब्द की व्युत्पत्ति
रूप-योग पद-संज्ञा लिंग-पुल्लिंग, नपुंसक धातु- युज् > युञ्जति, युनक्ति, युङक्ते ।
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