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की नियमा है तथा ज्ञान आत्मा, चारित्र आत्मा, कषाय आत्मा की भजना है। शुभ योग आत्मा उज्ज्वलता की रष्टि से व करणी की दृष्टि से निरषद्ध है। अशुभ योग खात्मासावध है।
द्रव्य आत्मा में योग आत्मा की नियमा है, कषाय आत्मा में योग आत्मा की भजना है। उपयोग आत्मा, ज्ञान, दर्शन, वीर्य आत्मा में योग आत्मा की भजना है। चारित्र आत्मा में योग आत्मा की भजना है।
वीर्य के दो भेद है-~-लब्धिवीर्य और करणवीर्य। करणवीर्य का संबंध योग आत्मा से है । लब्धिवीय चौदहवें गुणस्थान तक है ।
कामणकाय योग स्थूल शरीरधारी ( औदारिक, वे क्रिय, आहारिक ) के नहीं होता है। आहारिक काययोग व आहारिक मिभ काययोगी नियमतः भव्य जीवधारी के-प्रमत्त संयत के होते हैं। अवशेष तेरह योग भव्य अभव्य दोनों के होते हैं ।
चूंकि अंतराल गति में केवल कार्मण काय योग होता है लेकिन कृष्णादि छओं लेश्या में से कोई भी एक लेश्या हो सकती है । व्यक्तिगत रूप से पन्द्रह योगों में से किसी भी योग के साथ लेश्या का अविनाभाव संबंध नहीं है। लेश्या के साथ किसी न किसी प्रकार का काययोग होता है।
__ अपूर्ण रूप से कर्मों का क्षय होना निर्जरा है और पूर्ण रूप से कर्मों का क्षय होना मोक्ष है।
जैन परिभाषा में आत्मीय विचारों को भावलेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्यलेश्या कहते है। कहा है
"द्रव्य निमित्तं हि संसारिणां वीर्यपजायते" अर्थात संसारि जीवों का जितना भी वीर्य पराक्रम है वह सब पुद्गलों की सहायता से होता है ।
नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवती ने कहा है ----
एक्कारसजोगाणं पुष्णगहाणं सपुषण आलाओ मिस्सचउक्कस्स पुणो सगएक अपुण्ण आलाओ
-गोजी०७२३ अर्थात् पर्याय अवस्था में होने वाले चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक, बैक्रिय और आहारक काययोग-इन ग्यारह योगों में अपना-अपना पर्याप्ठ आलाप होता है। जैसे सत्य मनोयोग के सत्य मन पर्याप्छ आलाप होता है। चार मिश्र योगों में अपना- अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है। जैसे ---औदारिक मिश्र के औवारिक अपर्याप्त
आलाप होता है।
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