________________
( 67 )
नयकी अपेक्षा से सावद्य का अर्थ केवल मात्र कर्म-बंध-क्रिया है। (एव खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जा ) इविधिक क्रिया का तेरहवें गुणस्थान में वर्णन किया है। इसके शेष में भी उक्त वाक्य का प्रयोग है।
मनःपर्ययज्ञान द्रव्य मन से ही उत्पन्न होता है ऐसा नियम है। शरीर के अन्य प्रदेशों में उत्पन्न नहीं होता है। उस द्रव्यमन में भावमन और मनःपय य शान उत्पन्न
- गोम्मटसार में अयोगी केवली की उत्कृष्ट संख्या ५६८ बतलाई है ।२ विग्रहगति में आये हुए चारों गतियों के जीव, प्रतर और लोक पूर्ण समुद्घात करने वाले सयोगी जीव में एक कामण काययोग होता है। मूल शरीर को छोड़कर कामण और तेजस रूप उत्तर शरीर से युक्त जीव के प्रदेश समूह को शरीर से बाहर निकालना समुद्घात है ।
विभंग ज्ञानी मनुष्य-तिर्यच में कार्मण काययोग नहीं होता है। चक्षदर्शनी में भी कामण काययोग नहीं होता है। तीर्थकर में पाँच योग होते हैं-सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग, सत्यवचन योग, व्यवहारवचन योग व औदारिक काययोग । तीर्थ कर के केवल समुद्घात नहीं होता है अतः औदारिक मिश्र काययोग व कार्णण काययोग नहीं होता है ।
दस अच्छेरों में दसवां अच्छेरा असंयमी की पूजा (असंयते पूजा) का है। प्रवचनसारोबार में कहा है :
असंजयाण नवमजिणे ८८८८८६
"सर्वथा तीर्थच्छेदरूप असंयती पूजा सुविधनाथ तीर्थ कर के मोक्ष जाने के बाद तथा शीतलनाथ तीर्थ कर के होने के पूर्व हुई । ठाणांग की टीका में कहा है- "सुविधिनाथ तीर्थ कर से सोलहवें तीर्थ कर के समय तक असंयती पूजा हुई।
सुविधनाथ स्वामी के निर्वाण के कुछ काल पश्चात हुण्डा-अवसर्पिणी काल के दोष से भ्रमण निग्रन्थ का विच्छेद हो गया अर्थात् एक भी साधु नहीं रहा। शीतलनाथ के संघ स्थापन के पूर्व संध-विच्छेद हो गया। रात्रि में उल्लू के राजत्व की तरह उसी समय ब्राह्मणों का एकच्छत्र राज्य स्थापित हो गया। इस प्रकार शांतिनाथ के पूर्व अन्य छह वार श्रमणधर्म का विच्छेद हुआ । इससे असंयत अविरतों की पूजा होने लगी। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने योग शास्त्र के मंगलाचरण में लिखा है :
"नमो दुर्वाररागदि वैरिवार निवारणे । बहते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥
१ गोम्मटसार पृ०६६८
CU.
२
"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org