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काययोग के सात भेद :
६-औदारिक काययोग १.-औदारिकमिश्र , ११-वे क्रिय १२-वै क्रियमिश्र १३-आहारक १४-आहारकमिश्र १५-कामण
-पचीस बोल-अमृत कलश पृ० २२२
-कालू तत्त्व शतक पहला वर्ग २३६ जैन दर्शन समितिके अध्यक्ष भीअभयसिंह सुराना, परामर्शक श्री नवरतनमल सुराना, श्रीहीरालाल सुराना, श्रीमोहनलाल बैद, डा सत्यरंजन बनर्जी, गणेश ललवानी तथा दिवंगत आत्मा मोहनलाल बांठिया के भी हम कम आभारी नहीं है जो हमें इस कार्य के लिए सतत प्रेरणा तथा उत्साह देते रहे । सुराना प्रिन्टिग वक्स के संचालक श्री भागचन्द सुराना तथा उनके कर्मचारी भी धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस पुस्तक का सुन्दर मुद्रण किया है।
श्वेताम्बर परम्परा में यद्यपि स्त्रीमुक्ति प्राप्त कर सकती है। किन्तु उसे दृष्टिवाद पढ़ने का अधिकार नहीं है। पूर्वो की विद्या की ज्ञाता स्त्री नहीं होती है अतः आहारक काययोग व आहार कमिश्र काययोग स्त्री को नहीं होता है। ये योग चतुर्दश पूर्वधारी को होते है । ग्यारह अंगों को पढ़कर पश्चात् दृष्टिवाद को पढ़ा जाता था।
___आचार्य धरसेन महाकम प्रकृति प्राभृत के ज्ञाता थे। उन्होंने भूतबली-पुष्पदन्त को समस्त महाकर्म प्रकृति प्राभृत पढ़ाया और भूत बली-पुष्पदन्त ने महाकर्म प्रकृति प्राभृत का उपसंहार करके षट्खंडागम के सूत्रों की रचना की। इसके टीकाकार वीरसेन स्वामी थे । बीर सेन स्वामी और उनके गुरु एलाचार्य दोनो सिद्धान्त ग्रंथों के ज्ञाता थे। गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र की प्रमुख रचना है । त्रिलोकमार की अन्तिम गाथा में नेमिचन्द्र मुनि का नाम अवश्य है और उन्हें अभयनन्दि का शिष्य कहा है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवती की तीन ही रचनाएँ समुपलब्ध है-गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार । गोम्मटसार का ऊपर नाम पंच संग्रह भी है। मुलाचार जैन मुनि के आचार का एक प्राचीन ग्रन्थ है।
___ अस्तु गोम्मटसार में सयोगी केवली के मनोयोग की संभावना सहेतुक बतलायी है । योग ही जीव के प्रति कर्मों के आस्रव का प्रमुख कारण है। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। जो योग सहित होते हैं उन्हें सयोगी कहते है। इस तरह जो योग सहित केवलशानी होते हैं उन्हें सयोग-केवली कहते हैं । इसमें जो सयोग पद है वह नीचे के बारह गुणस्थानों में योग का अस्तित्व सूचक है। जिनके योग नहीं होता है वे अयोगी होते
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