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लता होती है, वहाँ पर ईयपथिक बंध होता है । यह पुण्य का बंधन है। इसकी स्थिति दो समय की है व यह ईर्यापथिक बंध केवल वीतराग के होता है ।
अंतराल गति में स्थूल शरीर तो नहीं होता, योग जन्य है । वक्रगति में कार्मण काययोग की चंचलता रहती है । अतः कार्मणकाय योग नहीं होता है— ओदारिक- मिश्र काय योग होता है ।
१ से ३ - प्राणातिपात आश्रव, मृषावाद आस्रव व अदत्तादान आखव ४ – मैथून आस्रव - अब्रह्मचर्य सेवन न करना ।
५ - परिग्रह आस्रव - धन, धान्य, मकान आदि पर ममत्व न रखना ६- श्रोत्रेन्द्रिय आस्रव - श्रोत्रेन्द्रिय की द्वारा द्वेष युक्त प्रवृत्ति
-चक्षुरिन्द्रिय
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७ - चक्षुरिन्द्रिय आस्रव - च - घ्राणेन्द्रिय आस्रव - घ्राणेन्द्रिय ६ - रसेन्द्रिय आस्रव - रसेन्द्रिय - स्पर्शेन्द्रिय आस्रव - स्पर्शेन्द्रिय
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११ - मन आस्रव - मन की प्रवृत्ति आसव
१२ - वचन आखव - वचन
१३ - काय आस्रव - काया
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१४ – भंडोप करण आखव - भण्ड-पात्र उपकरण - वस्त्र आदि को यत्नपूर्वक न
आठवां बोल योग पन्द्रहमनोयोग के चार भेद : १ - सत्य मनोयोग २-असत्य
- मिश्र
४ - व्यवहार
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रखना ।
१५ -- सूचि कुशाग्र मात्र आस्रव - किंचित मात्र भी पापयुक्त प्रवृत्ति ।
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वचनयोग के चार भेद : ५- सस्य वचनयोग
इनमें मन आस्रव, वचन आस्रव व काययोग शुभ और अशुभ दोनों है। बाकी अशुभ योग आस्रव के भेद हैं । शुभ कर्म योग की प्रवृत्ति से शुभ कर्म का बंध होता है और शुभयोग आव से अशुभ कर्मों का बंध होता है ।
६-असत्य
७- मिश्र
८ व्यवहार 99
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प्रवाह ( धक्का ) रहता जुगति - एक समय की है
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