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कतिपय आचार्य सयोगी केवली के भाव मन तथा भावलेश्या नहीं मानते है 1 भगवती में मनोयोग से व शुक्ललेश्या से सयोगी केवली के वेदनीय कर्म का बंधन माना है यहाँ यह भी स्पष्ट कह देना उचित है कि कोई-कोई शुक्ललेशी केवल्य अवस्था में वेदनीय कम का बंधन नहीं करते हैं ।
योग आस्रव के गौण (अवान्तर ) भेद पन्द्रह है। उनका विवरण इस प्रकार है :
१ - प्राणातिपात आस्रव - प्राणों का अतिपात-वियोजन करना, जीव-वध करना । २—मृषावाद आस्रव - झूठ बोलना
३- अदत्तादान आस्रव - चोरी करना
केवली समुद्घात में काययोग होते हुए आयुष्य का बंधन नहीं होता है । औदारिक तेजस और कार्मण शरीर योग के बिना भी हो सकते हैं तथा बाकी दो शरीर की सत्ता में योग की नियमा है ।
योग शाश्वत भाव है । जैसे लोक- अलोक-लोकान्त- अलोकान्त, दृष्टि, ज्ञान, कर्म आदि शाश्वत भाव है वैसे ही योग भी शाश्वत भाव है ।
लोक आगे भी है, पीछे भी है, योग आगे भी है, पीछे भी है— दोनों अनानुपूर्वी है इनमें आगे-पीछे का क्रम नहीं है । इसी प्रकार अन्य सभी शाश्वत भावों के साथ योग भी आगे पीछे का क्रम नहीं है । सब शाश्वत भाव अनादि काल से है, अनंतकाल तक रहेंगे ।
पुद्गल का संसारी जीवों के साथ घनिष्ठ संबंध है और वह अनेक प्रकार से काम आता है । कहा है
" द्रव्य निमित्तं हि संसारिणां वीर्यमुपजायते”
अर्थात् संसारी जीवों का जितना भी वीर्य पराक्रम है वह सब पुद्गलों की सहायता से होता है। पुद्गल किस प्रकार संसारी जीवों के साथ व्यवहार में आते हैं इसे समझने के लिए भिन्न-भिन्न पुद्गल वर्गणाओं को जान लेना जरूरी है । वर्गणा के नौ भेद उपलब्ध होते हैं वैसे अनेक भेद है
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१ - मनोवगणा, २ – भाषवर्गणा, ३ –: - शरीरवर्गणा, ४- - औदारिकवर्गणा; ५— वैक्रियवर्गणा ६ - आहारकवर्गणा ७ - तैजसवर्गणा, ८- कार्मणवर्गणा और ६- श्वासोकछुवा सवर्गणा ।
जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं । शरीर, वचन एवं मन के द्वारा होने वाले आत्म-प्रयत्न को योग कहते हैं । जैन परिभाषा में आत्मीय विचारों को भाव
१. झीणीचर्चा ५।४२
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